Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/155
आगम पढ़ने का अधिकारी, पंचाचार के अतिचार, बारहव्रत के अतिचार, नवतत्त्व का स्वरूप, पाँच प्रकार के ज्ञान आदि।
__यह ग्रन्थ वि.सं. १४११, दीपावली के दिन पूर्ण हुआ था, इस सम्बन्ध में ग्रन्थ की प्रशस्ति में विस्तार के साथ' उल्लेख है। इस ग्रन्थ के साथ 'गौतमस्वामीरास का अस्तित्व भी जुड़ा हुआ है। इस ग्रन्थ के अवलोकन से यह निश्चित होता हैं कि आचार्य तरूणप्रभ जैन ग्रन्थों के गहन अभ्यासी थे। पट्टावली के अनुसार इन्होंने स्वयं श्रीजिनकुशलसूरि के पास ‘स्यादवादरत्नाकर' आदि महान् तर्क ग्रन्थों का अध्ययन किया था। जिनकुशलसरि ने 'चैत्यवंदनकुलक' नामक एक प्राकृत ग्रन्थ पर विस्तृत संस्कृत व्याख्या लिखी थी, जिसके संशोधन में तरूणप्रभसूरि ने अपना सहयोग दिया था इससे प्रभावित होकर इनको जिनकुशलसरि ने 'विद्वत्जन चूडामणि' के रूप में उल्लिखित किया ।
____ यह उल्लेखनीय है कि तरूणप्रभसूरि रचित स्तुति-स्तोत्रादिक अनेक रचनाएँ प्राप्त होती हैं। उनमें स्तम्भन-पार्श्वनाथ स्तोत्र, अर्बुदाचल-आदिनाथ स्तोत्र, देवराजपुर- मंडल आदि जिन स्तवन, जैसलमेर-पार्श्वनाथ स्तवन, जीरावल्ली पार्श्वनाथ विज्ञप्ति, षटपत्तनालंकार- आदिजिन स्तवन, भीमपल्ली- वीरजिनस्तवन, तारंगलंकार- अजितजिन स्तवन आदि हैं। श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति (अपरनाम वृन्दारूवृत्ति)
यह वृत्ति' 'वंदित्तुसूत्र' पर रची गई है। इसकी रचना देवेन्द्रसूरि ने की है। मूल रचना प्राकृत पद्य में है। वृत्ति की रचना संस्कृत गद्य-पद्य में हुई है। इस कृति का लेखनकाल वि.सं. की १४ वीं शती है। इसमें श्रावक की प्रतिक्रमणविधि का प्रतिपादन हुआ है। वस्तुतः 'वंदित्तुसूत्र' का सविस्तार विवेचन किया गया है।
' संवत् १४११ वर्षे दीपोत्सवदिवसे शनिवारे श्रीमदणहिलपत्तने महाराजाधिराज पातसाहि श्रीपिरोजसाहि विजयराज्ये प्रवर्त्तमाने श्रीचन्द्रगच्छालंकार श्रीखरतरगच्छाधिपति श्री जिनचन्द्रसूरिशिष्यलेश श्रीतरुणप्रभ- सूरि श्री मंत्रिदलीयवंशावतंस उक्कुर चाहडसुत परमार्हत ठक्कुर विजयसिंह सुत श्री जिनशासनप्रभावक श्री देवगुर्वाज्ञाचिंतामणिविभूषितमस्तक श्री जिनधर्मकाचकर्पूरपूरसुरभितसप्तधातुपरमार्हत ठक्कुर बलिराजकृत गाढाभ्यर्थनया षडावश्यकवृत्तिः सुगमा बालावबोधकारिणी सकलसत्त्वोपकारिणी लिखिता।। शुभमस्तु ।।। * संयोग की बात वि.सं. १४११ में जिस दीपावली के दिन बालावबोध ग्रन्थ की रचना पूर्ण हुई, उसी दीपावली के दूसरे दिन (वि.सं. १४१२ में) जिनकुशलसूरि के शिष्य विनयप्रभ उपाध्याय द्वारा 'गौतमरास' की रचना की गई। जो प्रायः दीपावली के दूसरे दिन अनेक यति-मुनि तथा श्रावक आदि के द्वारा महामांगलिक स्तुति-पाठ के रुप में पढ़ा-सुना जाता है । ३ इसका प्रकाशन शाह नगीनभाई घोलामाई जेवरी, कोलभाटवीथी २३ मुंबई, वि.सं. १६६८ में
हुआ है
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