Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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292/समाधिमरण सम्बन्धी साहित्य
आधार पर वेदना परीषह को सहन करने का उपदेश दिया गया है। अन्त में यह निरूपित किया हैं कि आराधक द्वारा स्वयं को धन्य मानना चाहिए कि इस समाधि मरण के एक प्रयत्न से जीव दूसरे जन्म में भी दुख और दुर्गति को प्राप्त नहीं होता है। यह समाधि मरण अपूर्व चिन्तामणिरत्न एवं कल्पवृक्ष है। इसकी जघन्य आराधना से साधु सौधर्म देवलोक में महाऋद्धिशाली देव होता है। समाधिमरण की उत्कृष्ट आराधना से साधक (गृहस्थ) बारहवें देवलोक में उत्पन्न होता है और साधु निर्वाण को अथवा सर्वार्थसिद्धि विमान को प्राप्त करता है।
उपर्युक्त विवेचन से यह सुस्पष्ट है कि इस प्रकीर्णक में अथ से अन्त तक भक्तपरिज्ञा-अनशन-विधि का सुन्दर प्रतिपादन हुआ है साथ ही आराधक को विस्तार के साथ उपदेश भी दिया गया है। मरणविभत्ति (मरणविभक्ति या मरणसमाधि)
___ मरणविभक्ति नामक प्रकीर्णक प्राकृत भाषा में निबद्ध है।' इसमें ६६१ गाथाएँ है। यह कृति अपने नाम के अनुसार समाधिमरण स्वीकार करने की विधि, उसका स्वरूप एवं समाधिमरण का माहात्म्य प्रतिपादित करने वाली है। समाधिमरण सम्बन्धी ग्रन्थों में यह अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं।
प्रस्तुत प्रकीर्णक का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता हैं कि अन्य लघु प्रकीर्णकों में प्रतिपादित विषयवस्तु का इसमें विस्तार से वर्णन है। इतना ही नहीं महाप्रत्याख्यान की लगभग ६० गाथायें इसमें उपलब्ध हैं। अन्य लघु प्रकीर्णकों में निर्देशित तथ्यों का इसमें विस्तार कर दिया गया है। उदाहरणार्थ आचार्य के छत्तीस गुणों, आलोचना के दोषों आदि का इसमें नाम सहित वर्णन हैं जबकि अन्य प्रकीर्णकों में संख्या मात्र बता दी गई है। ग्रन्थकार के अनुसार १. मरणसमाधि, २. मरणविशोधि, ३. मरणविभक्ति, ४. संलेखनाश्रुत, ५. भक्तपरिज्ञा, ६. आतुरप्रत्याख्यान, ७. महाप्रत्याख्यान और ८. आराधना इन आठ प्राचीन श्रुतग्रन्थों के आधार पर प्रस्तुत प्रकीर्णक की रचना हुई है। अतः उन प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएँ प्रस्तुत कृति में उपलब्ध हो जाती है।
प्रस्तुत कृति का आरम्भ मंगलाचरण से हुआ है। उसके पश्चात् शिष्य द्वारा यह जिज्ञासा प्रस्तुत करने पर कि समाधिमरण किस प्रकार होता है? तब आचार्य कहते हैं कि जो साधु सम्पूर्ण चारित्र और शील से युक्त हैं वे समाधिमरण प्राप्त करते हैं। तदनन्तर समाधिमरण व्रत ग्रहण करने की विधि बतायी गई है। प्रस्तुत विधि सम्पन्न करने के लिए कहा गया है कि आराधक को
' मरणविभत्ति पइण्णयं-पइण्णयसुत्ताई, भा. १, पृ. ६६-१५६
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