Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 367
२५. भूतार्थ जानने की अनेक विधियों का वर्णन २६. गच्छ निर्गत मुनि पुनः गण में आने का प्रतिषेध करता है तो उससे उपधिग्रहण की प्रक्रिया २७. व्यक्तिलिंग विषयक मुनि के प्रायश्चित्त का निरूपण २८. आचार्य पद पर स्थापित गीतार्थ मुनियों के लिए उपकरण दान की विधि २६. गण द्वारा असम्मत मुनि को आचार्य बनाने पर प्रायश्चित्त का विधान ३० परिहार तप का काल और परिहरण विधि ३१. संसृष्ट हाथ आदि के चाटने पर प्रायश्चित्त का विधान ३२. आचार्य आदि के आदेश पर संसृष्ट हाथ आदि चाटने का विधान ।
इस प्रकार इस दूसरे उद्देशक में भी भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की अपेक्षा से कई प्रकार के प्रायश्चित्त की विधि का वर्णन हुआ है। इसके साथ ही पार्श्वस्थ आदि साधु, क्षिप्तचित्त-दीप्तचित्त का स्वरूप, आचार्य, उपाध्याय आदि की स्थापना विधि, दोष, अपवाद आदि तथा पारिहारिक और अपारिहारिक के पारस्परिक व्यवहार खान-पान, रहन-सहन आदि का भी विचार किया गया है।
तृतीय उद्देशक- इस उद्देशक का प्रारम्भ गणधारण की इच्छा करने वाले भिक्षु की योग्यता - अयोग्यता के निरूपण से हुआ है। 'गण' का निक्षेप पद्धति से विवेचन किया गया है। गणधारण क्यों किया जाता है ? इसका समाधान किया गया है । तदनन्तर प्रस्तुत उद्देशक के सूत्रों में निम्न विधानों का वर्णन प्राप्त होता है - १. गणधारण के योग्य की परीक्षा विधि २. शिष्य का प्रश्न और गुरुद्वारा परीक्षा विधि का समर्थन ३. गणधारण के लिए अयोग्य कौन ? ४. स्थविरों को पूछे बिना गण-धारण का प्रायश्चित्त विधान ५. प्राचीनकाल में शस्त्रपरिज्ञा से उपस्थापनाविधि, आज दशवैकालिक के चार अध्ययन से उपस्थापना की विधि का विधान ६. तत्काल प्रव्रजित को आचार्य पद क्यों? कैसे? ७. राजपुत्र, अमात्यपुत्र आदि की दीक्षा, उत्प्रव्रजन पुनः दीक्षा तथा पद-प्रतिष्ठापन ८ श्रुतविहीन पर लक्षणयुक्त को आचार्य पद देने की विधि ६. मोहोदय की चिकित्सा विधि १०. प्रतिसेवी मुनि को तीन वर्ष तक वंदना न करने का विधान ११. संघ में सचित्त आदि के लिए विवाद होने पर उसके समाधान की विधि |
इसके अतिरिक्त यहाँ मैथुनसेवन के दोषों का स्वरूप बताते हुए आचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक साधु आदि के लिए भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्तों का विधान एवं प्रव्रज्या के नियमों पर प्रकाश डाला गया है। मृषावाद आदि अन्य अतिचारों के सेवन का वर्णन करते हुए तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्तों का विवेचन किया जाता है । व्यवहारी और अव्यवहारी का स्वरूप बताते हुए भाष्यकार ने एक आचार्य का उदाहरण दिया है उनमें आठ प्रकार के व्यवहारी शिष्य की प्रशंसा करने का निषेध किया गया है। इत्यादि विषयों के साथ यह उद्देशक पूर्ण होता है ।
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