Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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446 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
चर्चित किये गये हैं यथा पूजा की उत्पत्ति, भावना में से पूजा का जन्म, पूजा का विकास क्रम, सर्वोपचारी पूजा के प्रमाण, शाश्वत जिन-प्रतिमाओं का वर्णन, भगवान् ऋषभदेव का जन्माभिषेक, प्रतिभा की पुष्पादि पूजा पर आक्षेप करने का प्रायश्चित्त, पुटपक्वगंध और वास का विवेचन, जैन मन्दिरों में प्रकाश के लिए तेल के दीपक रखने का निषेध, मन्दिर में अखण्डदीपक रखना शास्त्रोक्त नहीं, गंध का अर्थ घिसा हुआ केसर - चन्दन नहीं है, गंध अथवा वास पूजा कैसे करे ? बासी वास पूजा का अवतारण कैसे करना ? नित्य प्रक्षालन के बिना धातु की मूर्ति को कैसे उजालना? नित्यस्नान का दुष्परिणाम तुरन्त मालुम नहीं होता है, नवांग पूजा का विधान, त्रिकाल जिनपूजा का विधान, गृहमंदिर में अपूजनीय जिनप्रतिमा, गृहमन्दिर में बलि चढ़ाने सम्बन्धी चर्चा, छोटी - प्रतिमाओं का नित्यस्नान नहीं, प्रयोग-परिजात में नित्य- स्नान का निषेध, एकविध, द्विविध, त्रिविध पूजाएँ, विघ्नोपशमनी आदि तीन पूजाएँ, पुष्पअक्षतादि की त्रिविधपूजा, तामसी, राजसी आदि तीन पूजाएँ, पुष्प नैवेद्यादि की चतुर्विध पूजा, पुष्प अक्षतादि की पंचविध पूजा, गंध धूपादि की अष्टविध पूजा प्राचीन सूत्रोक्त चतुर्दशप्रकारी पूजा, पूजाप्रवृत्तियों से सम्बद्ध तीनकाल विभाग, जिनपूजा के उपादानों और उपकरणों की सूची, सूचीकोष्ठकों का स्पष्टीकरण, सुवर्णपुष्पों से पूजा का विधान, सहभेदी पूजा में मत-भेदों की परम्परा, नैमित्तिक पूजाएँ, क्या मूर्ति पूजा करना शास्त्रोक्त है ?, मूर्तिपूजा का पूर्वकाल में विरोध क्यों नहीं हुआ ?, जिनपूजा पद्धति में विकृति के बीजारोपण, नित्य स्नान के आम आंदोलन, नूतन समस्याएँ, भक्ति चैत्यों में वेतन - भोगी पूजारी, देवद्रव्य की वृद्धि के लिए नया सर्जन, विलेपन के बदले में तिलकपूजा, तिलकपूजा में मतभेद, पूर्वकाल में जिनपूजा के लिए नित्य स्नान न करने के प्रमाण, महास्नों में से लघुस्नात्र, लघुस्नात्रों में से नित्यस्नान का जन्म, आभरण विधि और चक्षुर्युगल, मूर्ति पर नित्य आंगिया चढ़ाये रखने से नुकसान, बाल्यावस्था की भावना, राज्यावस्था की भावना, छद्मस्थ श्रमणावस्था की भावना, कैवल्यावस्था की भावना, सिद्धावस्था की भावना, सत्रहवीं शती की पूजा-पद्धति, पूजा में हुये परिवर्तन के परिणाम इत्यादि । '
इस समग्र विवरण से सुज्ञात होता है कि लेखक प्रवर ने पूजाविधि एवं तत्सम्बन्धी ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया है। वस्तुतः यह ग्रन्थ प्राचीन - अर्वाचीन दोनों प्रकार की पूजा पद्धतियों का निरूपण कर शोधार्थियों एवं विद्वद्जनों के लिए अलभ्य सामग्री प्रदान करता है । ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह कृति अमूल्य प्रतीत
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यह कृति वि.सं. २०२२ में, श्री कल्याणविजय शास्त्र - संग्रह- समिति जालोर (राज.) से प्रकाशित है।
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