Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/537
नागोरी ने किया है। इसमें नमस्कारमंत्र स्मरण करने से सम्बन्धित विधि-विधानों का उल्लेख हुआ है। यह कृति आवश्यकसूत्र, भगवतीसूत्र, महानिशीथसूत्र, कल्पसूत्र, चन्द्रप्रज्ञप्ति, प्रतिष्ठाकल्पपद्धति, योगशास्त्र, धर्मबिन्दु, श्राद्धविधि, विवेकविलास आदि ग्रन्थों के आधार पर निर्मित की गई है।
यह कल्प सत्रह प्रकरणों में विभक्त है। प्रथम प्रकरण में नमस्कार महामंत्र की महिमा संक्षिप्त रूप से बतायी गयी है। दूसरे प्रकरण में नमस्कारमंत्र और जैन सिद्धांत की चर्चा की है। इसमें यह कहा गया है कि नमस्कारमन्त्र में नवपद हैं और इनमें अनेक प्रकार की गुप्त विद्याएँ व्याप्त हैं। यह सिद्धियों का भण्डार और मोक्ष सुख देने वाला है। इस मन्त्र का यथाविधि स्मरण किया जाये तो निःसन्देह मनवांछित फल प्राप्त होता है। श्रीपाल महाराजा का कुष्ट रोग इन्हीं नवपदों की आराधना से नष्ट हुआ था। कच्चे सूत से बंधी हुई चालणी द्वारा पानी निकालने में इसी मंत्र का चमत्कार था। चम्पानगरी के दरवाजे खोलने में भी इसी मंत्र का प्रभाव था इत्यादि शास्त्रीय उदाहरण एवं प्रमाण सहित नमस्कारमंत्र की महिमा का निरूपण हुआ है।
तीसरे प्रकरण में यह बताया गया है कि कोई भी मंत्र या स्तोत्रादि का शुद्ध उच्चारण न किया जाये तो वह फलीभूत नहीं होता हैं अतः मन्त्रोच्चारण में शुद्ध बोलने का पूरा ध्यान रखना चाहिये। चौथे प्रकरण में नवांग महिमा पर विचार किया गया है इसमें उल्लेख किया हैं कि नवकार, नवपद, नवतत्त्व आदि जिन शब्दों का ६ के अंक से उच्चार होता है उनमें अनेक तरह की सिद्धियाँ समाविष्ट होती है। नौ का अंक अक्षय होता है। यह प्रकरण पढ़ने समझने जैसा है। पाँचवे प्रकरण में माला और आवृत्त पर विचार किया गया है। माला के सम्बन्ध में- माला किस प्रकार की होनी चाहिए, माला किस प्रकार रखनी चाहिए, माला किस उंगली से फेरना चाहिए और माला को किस प्रकार मन्त्रित करना चाहिए इत्यादि निरूपण किया गया है। आवृत्त के सम्बन्ध में- शंखावर्त्त, नन्द्यावर्त्त, ऊँकारावर्त और ह्रींकारावर्त पूर्वक नमस्कारमंत्र का जाप किस प्रकार करना चाहिए, उसकी सचित्र विधि बतलायी गयी है।
छठे प्रकरण में नवकारमंत्र से ही सम्बन्धित किन्तु भिन्न-भिन्न फलवाले सतत्तर मंत्र एवं उनके विधान बताये गये हैं। सातवें प्रकरण में प्रणवाक्षर-ऊँकार की ध्यान विधि कही गई है। इस प्रणवाक्षर में पंचपरमेष्ठी की स्थापना है। यह प्रणवाक्षर अत्यन्त शक्तिशाली और प्रभाविक है। अ-सि-आ-उ-सा इस मन्त्र का नाभिकमल, मस्तक, मुखकमल, हृदयकमल एवं कण्ठस्थल पर किस प्रकार ध्यान करना चाहिए? तथा जो भव्यात्मा 'ऊँकार' का नित्य ध्यान करते हैं उनका कल्याण होता है यह भी इसमें कहा गया है।
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