Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 645
________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 615 इस ग्रन्थ में वास्तुसम्बन्धी अमूल्य सामग्री का संकलन किया गया है। यह कृति १४ वीं शती के उत्तरार्ध की है। ग्रन्थ की प्रशस्ति' में रचनाकार की जन्मस्थली, वंश, पिता एवं रचनाकाल आदि का सुस्पष्ट उल्लेख हुआ है। १. इस ग्रन्थ का प्रथम प्रकरण 'गृह निर्माण विधि' से सम्बन्धित है। इस गृहनिर्माण विधि के अन्तर्गत १५८ गाथाएँ हैं। इसमें मुख्यतः निम्न विधियों का स्वरूप दर्शाया गया है। उन विधियों के नाम ये हैं 9. भूमिपरीक्षा विधि, २. शल्यशोधन विधि ३. शिलास्थापन विधि, ४. द्वार - र- कोना - स्तंभ आदि रखने योग्य दिशा ज्ञान विधि, ५. प्रस्तार विधि, ६. गृहारंभ करने योग्य दिशा विधि इसके साथ ही इस ग्रन्थ में गृहप्रवेश के शुभाशुभ का विचार, खात कार्य करने वाले पुरुष के लक्षण, शयन सम्बन्धी दिशा का विचार, पशु बांधने का स्थान, वेध जानने का प्रकार, आय और व्यय आदि का ज्ञान, सोलह एवं चौसठ प्रकार के घरों के लक्षण, प्रवेश द्वार के स्वरूप इत्यादि विविध विषयों का विवेचन किया गया है। इस ग्रन्थ का दूसरा प्रकरण 'विम्ब परीक्षा विधि' का विवेचन प्रस्तुत करता है। इस प्रकरण में ५४ गाथाएँ हैं। इसमें सर्वप्रथम बिम्ब निर्माण हेतु पाषाण और काष्ट की परीक्षा विधि बतलाई गई है फिर देवों के हाथों में शस्त्र आदि रखने की विधि का निरूपण किया गया है। इसके साथ ही परिकर का स्वरूप, पूजनीय - अपूजनीय मूर्ति का लक्षण, गृहमंदिर में पूजने योग्य मूत्तियाँ, प्रतिमा का मान, प्रतिमा के शुभाशुभ लक्षण आदि की विवेचना दी गई है। प्रस्तुत कृति का तीसरा प्रकरण 'प्रासाद निर्माण विधि' का प्रतिपादन करता है। इस प्रकरण में ७० गाथाएँ हैं इसमें विषयानुक्रम से अनेक बिन्दुओं पर चर्चा की गई हैं। उसमें कर्मशिला का मान, शिलास्थापन का क्रम, प्रासाद पीठ का मान, प्रासाद का स्वरूप आमलसार कलश की स्थापना, शिखरों की ऊँचाई, ध्वजा का मान, प्रतिमा का दृष्टि स्थान, जगती का स्वरूप, चौबीस जिनालय का क्रम, बावन जिनालय का क्रम, बहत्तर जिनालय का क्रम, गृह मन्दिर का स्वरूप इत्यादि विषयों का ससन्दर्भ विवेचन किया गया है। ग्रन्थकारप्रशस्ति- दिल्ली के निकट 'करनाल' नामक गाँव में, धनधकलश नामक कुल में उत्पन्न होने वाले 'कालिक' नाम के शेठ के सुपुत्र ठक्कर 'चंद्र' थे। उनके सुपुत्र ठक्कर 'फेरु' हुए । उनके द्वारा प्राचीन शास्त्रों का अवलोकन करके स्व और पर उपकार के लिए वि.सं. १३७२ में, विजयादशमी के दिन गृह-प्रतिमा और प्रासाद के लक्षणों से युक्त 'वास्तुसार' नामक शिल्प विद्या से सम्बन्धित यह ग्रंथ रचा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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