Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 659
________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 629 अध्याय १३ विविध विषय सम्बन्धि विधि- विधानपरक साहित्य अष्टकप्रकरण यह कृति' जैन परम्परा के प्रमुख और बहुश्रुत आचार्य हरिभद्रसूरि की है। इसकी रचना संस्कृत भाषा में हुई है। इसमें २५८ श्लोक निबद्ध है। यह ग्रन्थ बत्तीस प्रकरणों में विभक्त है और प्रत्येक प्रकरण में आठ-आठ श्लोक हैं मात्र अन्तिम प्रकरण अपवाद हैं, जिसमें दस श्लोक हैं। इसके बत्तीस प्रकरणों के नाम इस प्रकार हैं १. महादेवाष्टकम्, २. स्नानाष्टकम्, ३. पूजाष्टकम्, ४. अग्निकारिकाष्टकम्, ५. भिक्षा- ष्टकम्, ६. सर्वसम्पत्करीभिक्षाष्टकम्, ७. प्रच्छन्नभोजनाष्टकम्, ८. प्रत्याख्यानाष्टकम्, ६. ज्ञानाष्टकम्, १०. वैराग्याष्टकम्, ११. तपाष्टकम्, १२. वादाष्टकम्, १३. धर्म- वादाष्टकम्, १४. एकान्तनित्यपक्षखण्डनाष्टकम्, १५.अनित्यपक्षखण्डनाष्टकम्, १६. मांसभक्षणदूषणाष्टकम्, १७. मांसभक्षणदूषणाष्टकम्, १८. मांसभक्षण दूषणाष्टकम् १६. मद्यपानदूषणाष्टकम्, २०. मैथुनदूषणाष्टकम्, २१. सूक्ष्मबुद्ध्याश्रयणाष्टकम्, २२. भावविशुद्धिविचाराष्टकम्, २३. मालिन्यनिषेधाष्टकम्, २४. पुण्यानुबन्धिपुण्यादि विवरणाष्टकम्, २५. पुण्यानुबन्धिपुण्यप्रधानफलाष्टकम्, २६. तीर्थकृद्दानमहत्त्व सिद्धयष्टकम्, २७. तीर्थकृ द्दाननिष्फलता परिहाराष्टकम्, राज्यादिदानेऽपि तीर्थकृतोदोषाभाव-प्रतिपादनाष्टकम्, २६. सामायिकस्वरूपनिरूपणाष्टकम्, ३०. केवलज्ञानाष्टकम्, ३१. तीर्थकृद्देशनाष्टकम् ३२. मोक्षाष्टकम् । शासन २८. इन प्रकरणों में से दूसरा, तीसरा, पाँचवा, छठा, सातवाँ और उन्तीसवाँ प्रकरण विधि-विधानों से सम्बन्धित है। दूसरे प्रकरण में स्नानविधि के दो प्रकारों का निरूपण हैं १. द्रव्यस्नान और २ भावस्नान। इसमें कहा है कि यद्यपि द्रव्य स्नान शरीर के अंग-विशेष की क्षणिक शुद्धि का ही कारण है, फिर भी भावशुद्धि का निमित्त है। साथ ही स्नान के पश्चात् तीर्थंकर परमात्मा एवं आचार्यादि की पूजा करने वाले गृहस्थ का द्रव्यस्नान शुभ माना गया है। तीसरे प्रकरण में दो प्रकार की पूजाविधि का उल्लेख हुआ है और कहा है कि द्रव्यपूजा स्वर्ग और भावपूजा मोक्ष का साधन है। इन्हें क्रमशः अशुद्ध और शुद्धपूजा भी कहा गया है। 9 (क) इस प्रकरण का हिन्दी अनुवाद डॉ. अशोककुमार सिंह ने किया है। (ख) यह कृति सानुवाद 'पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी' ने सन् २००० Jain Education International For Private & Personal Use Only प्रकाशित की है। www.jainelibrary.org

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