Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 660
________________ 630/विविध विषय सम्बन्धी साहित्य द्रव्यपूजा आठ प्रकार की बतलायी है और उसे शुभ बन्ध का कारण माना है। साथ ही भावपूजा के भी अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, गुरुभक्ति, तप और ज्ञान ये आठ प्रकार बताये गये हैं और कहा है भावपूजा से आत्मा के भाव प्रशस्त होते हैं और इससे व्यक्ति अन्ततः निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। पाँचवें प्रकरण में तीन प्रकार की भिक्षाविधि का विवेचन है। इसमें उल्लेख है कि आदर्श साधु द्वारा स्थविर, ग्लान आदि के लिए भ्रमर वृत्ति से प्राप्त की गई भिक्षा सर्वसम्पत्करी भिक्षा कहलाती है। श्रमणाचार के प्रतिकूल आचरण करने वाले की भिक्षावृत्ति मात्र जीविका हेतु ग्रहण की जाने वाली होने से वह पौरुषघ्नीभिक्षा कही जाती है तथा निर्धन, नेत्रहीनादि द्वारा जीविका हेत माँगी जाने वाली भिक्षा वृत्तिभिक्षा है। सातवें प्रकरण में निरूपित किया है कि साधु को प्रच्छन्न रूप से एकान्त में भोजन ग्रहण करना चाहिए क्योंकि यह साधुओं का आवश्यक विधान है। अप्रच्छन्न आहार ग्रहण करने पर क्षुधा-पीड़ित दीनादि याचकों द्वारा मांगे जाने पर उनको आहार दान करने से पुण्य बन्ध होगा और आहार न देने पर जिनशासन के प्रति उनके मन में द्वेष पैदा होगा। इन दोनों स्थितियों से बचने के लिए श्रमण को प्रच्छन्न आहार ग्रहण करना चाहिए। उनतीसवें प्रकरण में सामायिक विधि का स्वरूप और उसके लक्षण निरूपित हैं। इसमें कहा है कि सामायिक करने वाले लोगों का स्वभाव चन्दन के समान होता __ इस प्रकार हम देखते है कि उक्त प्रकरणों में और इनके अतिरिक्त भी इसमें श्रमण एवं श्रावक वर्ग दोनों को सदाचारी बनने की और सूक्ष्म बुद्धि पूर्वक आगमों के अनुरूप अपने आचार-विचार का परीक्षण करने की शिक्षा दी गई है। अष्टक प्रकरण की एक अन्य प्रमुख विशेषता इसके प्रकरणों का संक्षिप्त होना है। आचारप्रदीप - 'आचारप्रदीप' नामक यह ग्रन्थ' मुनिसुन्दरसूरि के शिष्य रत्नशेखरसूरि का है। यह संस्कृत-प्राकृत मिश्रित भाषा में गुम्फित है। यह रचना ४०६५ श्लोक परिमाण है। इसका रचनाकाल वि.सं. १५१६ है। यह कृति अपने नाम के अनुसार पंचाचार का निरूपण करने वाली है। यद्यपि नाम और स्वरूप की दृष्टि से पंचाचार का सम्बन्ध विधि-विधानों से नहीं है किन्तु पंचाचार का परिपालन विधि-विधानों के आधार पर ही होता है जैसे - आगम पाठ को अकाल समय में नहीं पढ़ना, नया पाठ गुरु ' यह ग्रन्थ 'देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था' ने सन् १६२७ में प्रकाशित किया है। इसमें आनन्दसागरसूरि का संस्कृत उपोद्धात एवं अवतरणों का अनुक्रम दिया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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