Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 652
________________ 622/ज्योतिष-निमित्त-शकुन सम्बन्धी साहित्य षट्पंचाशिका-टीका इसकी रचना वराहमिहिर के पुत्र पृथुयश ने की है। इसमें ५६ श्लोक हैं। यह जातक का प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है। इस पर भट्ट उत्पल की टीका है। इस ग्रन्थ पर खरतरगच्छीय लब्धिविजयजी के शिष्य महिमोदय मुनि ने भी एक टीका रची है। सिद्धादेश यह कृति संस्कृत भाषा में ६ पत्रों में है। यह पाटन के जैन भंडार में है। यह अज्ञात कर्तृक रचना है। इसमें वृष्टि, वायु और बिजली के शुभाशुभ विषयों का विचार किया गया है। सूर्यप्रज्ञप्ति ___ जैन आगमग्रन्थों में ज्योतिष-विधान विषयक चार सूत्र उपलब्ध होते हैं उनके नाम ये हैं- १. सूर्यप्रज्ञप्ति, २. चन्द्रप्रज्ञप्ति, ३. ज्योतिष्करण्डक, और ४. गणिविद्या सूर्यप्रज्ञप्ति' जैन आगमों का पाँचवां उपांगसूत्र है। इस सूत्र में सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रों की गति आदि का १०८ सूत्रों में विस्तार से वर्णन किया गया है। इसमें बीस प्राभृत है। इन प्राभृतों का वर्णय-विषय गौतम (इन्द्रभूति) और महावीर के प्रश्नोत्तरों के रूप में है। इसके प्रथम प्राभृत में आठ अध्याय हैं उनमें सूर्य के मण्डलों की गति संख्या, दिन और रात्रि के मुहूर्त, मण्डलों की रचना आदि का वर्णन है। दूसरे प्राभृत में तीन अध्याय हैं - इनमें सूर्य के उदय और अस्त का वर्णन, सूर्य के एक मण्डल से दूसरे मण्डल में गमन करने का वर्णन आदि है। तीसरे प्राभृत प्रकरण में चन्द्र-सूर्य द्वारा प्रकाशित किये जाने वाले द्वीप समुद्रों का वर्णन है। चौथे प्राभृत में सूर्य की लेश्याओं का वर्णन है। छटे प्राभृत में सूर्य के ओज का वर्णन है। सातवें में सूर्य अपने प्रकाश द्वारा मेरु आदि पर्वतों को ही प्रकाशित करता है अथवा अन्य प्रदेशों को भी इत्यादि विषयक चर्चा है। आठवें-नौवें प्राभृत में बताया गया है कि सूर्य के उदय एवं अस्त के समय ५६ पुरुषप्रमाण छाया दिखाई देती है। दसवें प्राभृत में बाईस अध्याय हैं इनमें मुख्यतः नक्षत्र विषयक वर्णन है। ग्यारहवें में संवत्सरों के आदि अन्त का वर्णन है। बारहवें में नक्षत्र, चन्द्र, ऋतु, आदित्य और अभिवर्धित इन पाँच संवत्सरों का वर्णन है। तेरहवें में ' यह ग्रन्थ मलयगिरि वृत्ति सहित, आगमोदयसमिति बम्बई से सन् १६१६ में प्रकाशित हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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