Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
View full book text
________________
618/ज्योतिष-निमिः . एन सम्बन्धी ग्याहित्य
संतान के जन्म, लग्न और शयनसंबंधी शकुन, प्रभात में जागृत होने के शकुन, परदेश जाने के समय के शकुन, नगर में प्रवेश करने के शकुन, वर्षासंबंधी परीक्षा, मकान बनाने के लिए मकान की परीक्षा, जमीन खोदते हुए निकली हुई वस्तुओं का फल, स्त्री को गर्भ नहीं : का कारण, मोती, हीरा आदि रत्नों के प्रकार और तदनुसार उनके शुभाशुभ फल आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इस प्रकार इस ग्रन्थ में शकुन विषयक विधान कहे गये हैं। शिल्परत्नाकर
__यह ग्रन्थ नर्मदाशंकर मूलजीभाई शिल्पशास्त्री द्वारा रचा गया है।' यह कृति संस्कृत पद्य में है। इसमें लगभग २६४७ श्लोक हैं। यद्यपि इस ग्रन्थ के रचयिता हिन्दू परम्परानुयायी है लेकिन उनके द्वारा यह ग्रन्थ स्वमति या स्वकल्पना के आधार पर नहीं रचा गया है अपितु प्राचीन ऋषि-महर्षियों के विरचित ग्रन्थ इसके मूल आधार रहे हैं। नर्मदाशंकर जी ने जैन-जैनेतर के तद्विषयक सभी ग्रन्थों के सारभूत तत्त्वों को इसमें समाविष्ट किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रस्तावना के अनुसार इस ग्रन्थ का निर्माण करते समय ग्रन्थकार ने अपराजित, सूत्रसंतान, क्षीरार्णव, दीपार्णव, वृक्षार्णव, वास्तुकौतुक, वास्तुसार और निर्दोष वास्तु इन प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों का सारांश लिया है तथा प्रसादमंडल, रूपमंडल, चौबीस तीर्थंकरों के जिन प्रासाद, आयतत्त्व और कुंडसिद्धि ये पाँच ग्रन्थ तो सम्पूर्ण रूप से समाविष्ट कर लिये गये हैं। इतना ही नहीं इन पूर्वोक्त ग्रन्थों की विषय सामग्री के साथ-साथ जिन प्रासाद के प्रत्येक अंग; जैसे कि जगती, पीठ, महापीठ, कर्णपीट, मंडोवर, द्वारशाखा, स्तंभादि तथा केशरादि, तिलकसागरादि ऋषभादि, वैराज्यादि और मेर्वादि प्रासादों के शिखर, मंडप, साभरण, मूर्तियाँ एवं परिकर आदि के चित्र भी दिये गये हैं।
इस विवरण के आधार पर निर्विवाद रूप से सूचित होता है कि यह ग्रन्थ जैन-जैनेत्तर परम्परा का सम्मिश्रित रूप है। इस कृति में उक्त दोनों ही परम्पराओं के प्रतिष्ठादि-शिल्पादि का विवेचन हुआ है। सभी परम्पराओं में शिल्परचना का माहात्म्य प्राचीन काल से रहा हुआ है। शिल्परचना के महत्त्व को साक्षात् दर्शाने वाले कई प्रासाद एवं स्थलादि अभी भी विद्यमान हैं, जैसे कि गुजरात के सिद्धपुर में आया हुआ रुद्रमहालय, तारंगाहिल ऊपर श्री अजितनाथ प्रभु का श्वेताम्बर जिनमंदिर, आबूपर्वत पर स्थित देलवाड़ा के जैन मन्दिर, बहेचराजी के निकट आया हुआ मुंढेरा गाँव का प्राचीन सूर्यप्रासाद, मारवाड़ और
' यह ग्रन्थ श्री नर्मदाशंकर मूलजीभाई सोमपुरा धांगध्रा काठियावाड़ से सन् १९६० में प्रकाशित हुआ है।
Jain Education International
:
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org