Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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556 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
मन्त्रराजरहस्यगर्भित 'अर्हदादिपंचपरमेष्ठिस्वरूप'
यह कृति संस्कृत पद्य में निबद्ध सिंहतिलकसूरि की है। प्रस्तुत अंश उनके स्वरचित मन्त्रराजरहस्य से लिया गया है। यह समग्र ग्रन्थ ६३३ पद्यों वाला है। इस विवरण में ६८ पद्य लिये गये हैं। इसका ग्रन्थाग्र ८०० श्लोक परिमाण हैं। इस अंश में ऊँ ह्रीं अहं आदि बीज मंत्रों का व्यापाक दृष्टि से विचार किया गया है और इन बीजाक्षरों की उपासना पद्धति बतायी गई है।
प्रस्तुतांश में उपासना पद्धति से सम्बन्धित अग्रलिखित विषय चर्चित हुए है - सर्वप्रथम ऊँकार-ड्रींकार का स्वरूप कहा गया है। फिर ड्रींकार के देह में पंच परमेष्ठी और चौबीस तीर्थंकर किस प्रकार रहे हुये हैं ? इसे समझाया गया है। साथ ही वर्ण युक्त पंचपरमेष्ठी का ध्यान करने से उत्पन्न होने वाले अद्भुत फल का कथन किया गया है। दैहिक अंग पर, शरीर रक्षा के लिए पंच परमेष्ठी पदों के न्यास करने की विधि कही गई है और भी, जो सामान्य रूप से प्रतिदिन १२००० परिमाण प्रणव ऊँकार का जाप करता है उसको एक वर्ष में परमब्रह्म स्पष्ट हो जाता है, ऐसा निर्देश है।
इस उद्धृतांश में ऐसा भी सूचित किया गया हैं कि मुनि को उभयसन्ध्याओं में बारह-बारह की संख्या पूर्वक तीन बार प्राणायाम पूर्वक ध्यान करना चाहिए इसका निरंतर जप करने से परमेष्ठी के अक्षर परिमाण से कितना जाप हो सकता है वह भी पल, घडी, उच्छ्वास, प्रणव आदि से स्पष्ट किया है। आगे के पद्यों में किस ग्रह की शांति के लिए कौनसे पद का जप करना चाहिए? शांतिकर्म के लिए कौनसे पद का किस तिथि को जप करना चाहिए ? कौनसा ध्यान किस तत्त्व रूप है ? किस ग्रह की शांति के लिए कौन से तीर्थंकर की आराधना करनी चाहिए? इत्यादि का सुन्दर वर्णन प्रतिपादित है ।
इस प्रकार इस स्तोत्र में उक्त बीजपदों की उपासना पद्धति विविध प्रकार से एवं विविध दृष्टिकोणों से निरूपित की गई हैं।
मन्त्राधिराजकल्प
इसके कर्त्ता सागरचन्द्रसूरि है। यह रचना १२ वीं शती की है। जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट होता है कि यह कृति नमस्कारमंत्र की तांत्रिक साधना विधि से संबंधित है। इसकी पाण्डुलिपि एल. डी. इन्सटीट्यूट आफ इण्डोलाजी, अहमदाबाद' में उपलब्ध है।
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