Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/573
इसमें पाँच पीठ की आराधना का आध्यात्मिक फल बताते हुए कहा हैं कि प्रथम पीठ की साधना से मतिज्ञान, द्वितीय पीठ की साधना से चौदह पूर्व का ज्ञान, तृतीय पीठ की साधना से अवधिज्ञान, चतुर्थ पीठ की साधना से मनःपर्यवज्ञान और पंचमपीट की साधना से केवलज्ञान उत्पन्न होता है तथा पाँचवा पीठ मन्त्रराज का पाँच लाख जाप करने वाला साधक तीसरे भव में मोक्ष जाता है।
__सूरिमन्त्र की साधना विधि का उल्लेख करते हुए साधना करने योग्य देश, साधना करने योग्य स्थल, साधना प्रारम्भ करने योग्य दिन एवं साधना की आवश्यक क्रियाएँ- शरीरशुद्धि, सुगंधि विलेपन, स्त्री मुख का अदर्शन, कपूर पूजन आदि का निर्देश दिया गया है। इसमें सूरिमन्त्र आराधना की तपविधि का भी निरूपण हुआ है। सूरिमंत्रबृहत्कल्पविवरण
यह ग्रन्थ खरतरगच्छीय जिनसिंहसरि के शिष्य जिनप्रभसूरि द्वारा वि.सं. १३०८ में निर्मित हुआ है। यह रचना मुख्यतः संस्कृत गद्य में है किन्तु कहीं-कहीं संस्कृत पद्य भी दृष्टिगत होते हैं। यह कृति अपने नाम के अनुसार सरिमन्त्र की साधना विधि से सम्बन्धित है। इस कल्प में सूरिमन्त्र की साधना कब, क्यों, किस प्रकार की जाती है? इत्यादिक विषयों का सम्यक् प्रतिपादन हुआ है। इसके साथ सूरिमन्त्र के अक्षरों का फलादेश भी बताया गया है। इससे स्पष्ट होता हैं कि इस मन्त्र की सम्यक् आराधना करने वाला साधक शासनोन्नति के साथ-साथ निश्चित रूप से आत्मकल्याण भी कर सकता है। सम्भवतः यह कृति स्वपरम्परा (लघु खरतरशाखा) के अनुसार रची गई प्रतीत होती है।
प्रस्तुत कृति का यह वैशिष्ट्य है कि इसमें संक्षिप्तता के साथ स्पष्टता है। मन्त्रपदों के साथ फलादेशों का सूचन हैं। यह साधना विधि आचार्यपद पर स्थापित होने वाले मुनियों के लिए आवश्यक कही गई है।
इसके प्रारंभ में मंगल निमित्त एक श्लोक दिया गया है उसमें बीजाक्षर रूप 'अर्ह' पद को नमस्कार करके आप्त उपदेश के आधार पर एवं अपने स्वसम्प्रदाय के अनुसार सूरिमंत्रकल्प को कहने की प्रतिज्ञा की गई है। तदनन्तर १. विद्यापीठ २. महाविद्या ३. उपविद्या ४. मंत्रपीठ और ५. मन्त्रराज इन पांच
' यह ग्रन्थ 'डाह्याभाई मोहोकमलाल पांजरापोल अहमदाबाद' द्वारा सन् १६३४ में प्रकाशित हुआ है। इसका संशोधन मुनि प्रीति विजयजी ने किया हैं इसमें कहीं-कहीं गुजराती तो कहीं-कहीं जैन महाराष्ट्री प्राकृत की पंक्तियाँ देखी जाती है। जो संभवतः संशोधक द्वारा जोड़ी गई लगती
२ वर्तमान की खरतरगच्छीय संविग्न परम्परा में प्रवर्तित प्रायः विधि-विधान जैसे- उपधानपदस्थापना-सूरिमंत्र आराधना आदि जिनप्रभरचित ग्रन्थानुसार ही किये जाते हैं।
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