Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 618
________________ 588/ज्योतिष-निमित्त-शकुन सम्बन्धी साहित्य इस परिशिष्ट को देखने से यह पता चलता है कि प्राचीनकाल में अपने भारत में वर्ण-जाति - गोत्र - सगपण सम्बन्ध वगैरह किस प्रकार के होते थे, लोगों की नामकरण के विषय में क्या पद्धति थी, नगर- गाँव - प्रकारादि की रचना किस ढंग की होती थी, लोगों की आजीविका किस-किस व्यापार से चलती थी, प्रजा में कैसे-कैसे अधिकार और आधिपत्य का व्यवहार था, लोगों की वेशविभूषा अलंकारादि विषयक शौक किस प्रकार के थे, लोगों के खाद्य-पेय पदार्थ किस-किस प्रकार के थे, लोकसमूह में कौन से उत्सव प्रवर्त्तमान थे, लोगों को कौनसे रोग होते थे ? और इनके अतिरिक्त भी अन्य बहुत सी बातों का परिज्ञान विद्वद्गण अपने आप ही कर सकते हैं। स्पष्टतः यह ग्रन्थ दुर्लभ सामग्री प्रस्तुत करता है। आरम्भसिद्धिः आरम्भसिद्धि नामक यह ग्रन्थ' संस्कृत पद्य में गुम्फित है। इसमें कुल ४१३ श्लोक हैं। इसकी रचना श्री उदयप्रभसूरि ने की है। इस ग्रन्थ पर श्रीहेमहंसगणि ने ‘सुधीश्रृंगार' नाम की वृत्ति रची है वह अत्यन्त विस्तार के साथ है । यह वृत्ति ५८५३ श्लोक परिमाण है। इस वृत्ति की रचना करते समय वृत्तिकार ने आवश्यक बृहद्वृत्ति, गणिविद्या, खण्डखाद्यभाष्य, गरुड़पुराण, त्रैलोक्याप्रकाश, भुवनदीपक, मुहूर्त्तसार, विवेकविलास, स्थानागंसूत्र, हर्षप्रकाश आदि कई ग्रन्थों के उद्धरणादि दिये हैं। इस कृति का अपरनाम व्यवहारचर्या है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल विक्रम की १५ वीं शती माना गया है। वस्तुतः यह ग्रन्थ जैन ज्योतिष के विधि-विधानों से सम्बन्धित है। इसमें जैन ज्योतिष की विपुल सामग्री का संचय हुआ है। इस ग्रन्थ के नाम से ही प्रतीत होता है कि इसमें आदि से लेकर अन्त तक ज्योतिष का सम्पूर्ण विषय समाविष्ट होना चाहिए अर्थात् आरम्भ - प्रारम्भ से लेकर सिद्धि-पूर्णाहूति तक प्रतिपादन करने वाला ग्रन्थ आरम्भ सिद्धि है। जैन परम्परा में ज्योतिष का महत्त्वपूर्ण स्थान शास्त्रसिद्ध है। जैन दर्शन में आगमसूत्रों को चार अनुयोगों में बाँटा गया है- १. द्रव्यानुयोग, २. गणितानुयोग, ३. चरणकरणानुयोग और ४. धर्मकथानुयोग। इसमें गणितानुयोग दो विषयों में विभक्त है १. भूगोल और २. खगोल। खगोल आकाश संबंधी होता है। भूगोल से संबंधित जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति आदि सूत्र हैं तथा खगोल विषयक चन्द्रप्रज्ञप्ति, 9 यह ग्रन्थ का प्रकाशन श्री लब्धिसूरीश्वर जैन ग्रन्थमाला - छाणी (बडोदरा ) से सन् १६४२ में हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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