Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/569
सूरिमन्त्रपटालेखनविधि
__ इस कृति का संशोधन तपागच्छीय मोहनसरिजी के शिष्य पं. प्रीतिविजयजी ने किया है।' यह कृति संस्कृत मिश्रित प्राकृत गद्य में है। इसमें गुजराती भाषा का भी प्रयोग हुआ है। प्रस्तुत कृति में मलधारीगच्छीय सम्प्रदायानुसार सूरिमन्त्र पट्टालेखन की विधि दर्शायी गयी है। सूरिमन्त्र पट्टालेखन से तात्पर्य है- प्रमाणोपेत एक ऊनी वस्त्र खण्ड या काष्ठ निर्मित खण्ड (पट्ट) पर यथा निर्दिष्ट मन्त्रों का आलेखन करना। यह सूरिमन्त्र पट्ट, आचार्यपद प्रदान करने के बाद, नृतन आचार्य को गुरु द्वारा समर्पित किया जाता है। तदनन्तर नूतन आचार्य इस पट्ट के समक्ष सूरिमन्त्र की साधना करते हैं।
__ इस कृति के प्रारम्भ में सृरिमन्त्र के पाँच पीट दिये गये हैं तदनन्तर सूरिमन्त्रपट्ट को विरचित करने एवं उस पट्ट पर मन्त्रालेखन करने की विधि बताई गई है। वह इस प्रकार है - सर्वप्रथम विरचित सूरिमंत्र पट्ट पर षट्कोण का बनाये। फिर चक्र के मध्य में मन्त्र लिखकर उस मन्त्र के बीच में भगवान महावीरस्वामी या गौतमस्वामी की मूर्ति स्थापित करें। फिर उसके दोनों ओर मन्त्रालेखन करें। तदनन्तर षट्कोण वाले चक्र में प्रत्येक कोण में मन्त्र लिखें। तत्पश्चात् दक्षिणोत्तर दिशा वाले चार कोणों में बारह पर्षदा की रचना करें। उसके बाद एक वलय करके उसमें मन्त्रपद लिखें फिर दूसरा वलय करके उसमें कमल की पंखुडिया बनायें। उस वलय के बाहर चार कोनों में चार देवियों की रचना करें। उसके बाद चार दरवाजे वाला पहला गढ़ मणिरत्नों से विरचित करें, फिर प्रथम गढ़ के दाँयी एवं बाँयी और मन्त्र पद लिखें। तत्पश्चात् समवसरण का दूसरा गढ़ स्वर्ण से निर्मित करें तथा उस गढ़ के चारों दिशाओं में मन्त्रपद लिखें। तदनन्तर समवसरण का तीसरा गढ़ चाँदी का बनाये, तथा उस गढ़ के चारों ओर भी मन्त्रपद लिखें। इस प्रकार समवसरण की रचना हो जाने के पश्चात् उसके बाहर एक चबूतरा बनायें। चबूतरे के चारों कोनों में दो-दो बावडिया निर्मित करें। प्रत्येक बावड़ी में जातीय वैरभाव वाले तिर्यच प्राणियों का आलेखन करें। फिर चबूतरे की प्रत्येक दिशा में निर्दिष्ट मन्त्रपद लिखें। इस पट्टालेखन के समय लिखने योग्य मन्त्रपदों हेतु मूलकृति का अवलोकन करना आवश्यक है। हम विस्तारभय से मन्त्रपदों का निर्देश नहीं कर पाये है।
इस कृति में मन्त्रआलेखनविधि के सिवाय कुछ मन्त्रपदों की जापविधियाँ जापसंख्याएँ एवं जापसाधना का फल भी बताया गया है। प्रस्तुत कृति के अन्त में रचनाकार-रचनाकाल एवं रचनास्थल का निर्देश करते हुए कहा गया हैं कि यह ग्रन्थ खानदेश के शिरपुर नगर के पद्मप्रभु की पावन छत्रछाया में वि.सं. १६७८ की
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