Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 588
________________ 558/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य यन्त्रराजरचनाप्रकार यह सवाई जयसिंह की रचना है। यह कृति हमें प्राप्त नहीं हुई है। सम्भवतः यह कृति अन्य परम्परा से सम्बन्धित है। रक्तपद्मावतीकल्प यह एक अज्ञातकर्तृक रचना' है। इसकी प्रकाशित पुस्तक में यह नाम नहीं देखा जाता है। इसमें रक्तपद्मावती पूजन की विधि वर्णित है। इस विधान के अन्तर्गत षट्कोणपूजा, षट्कोणान्तरालकर्णिकामध्यमभूमिपूजा, पद्माष्टपत्रपूजा, पद्मावती देवी के द्वितीय चक्र का विधान और पद्मावती का आहान-स्तव आदि विविध विषय आते हैं। रिष्टसमुच्चय एवं महाबोधिमन्त्र यह कृति आचार्य दुर्गदेव द्वारा संवत् १०३२ के श्रावण शुक्ला एकादशी को मूल नक्षत्र में निर्मित की गयी है। इसमें मरणसूचक चिन्हों की जानकारी के साथ-साथ अम्बिका मन्त्र एवं कुछ अन्य मन्त्र भी दिये गये हैं। इन मन्त्रों की साधना विधि भी चर्चित है। इन्हीं आचार्य दुर्गदेव की एक कृति महोदधिमन्त्र भी है। ये दोनों ग्रन्थ प्राकृत भाषा में निर्मित हुए हैं। लघुनमस्कारचक्रस्तोत्रम् प्रस्तुत रचना संस्कृत पद्य में है। इसमें कल ११५ श्लोक हैं। इसके रचयिता सिंहतिलकसरि है। यह स्तोत्र 'नमस्कार स्वाध्याय' भा. २ में संकलित है। इसका रचनाकाल १४ वीं शती का पूर्वार्ध है। यह स्तोत्र 'लघुनमस्कारचक्र की आलेखनविधि' से सम्बन्धित है यह अपने विषय की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस स्तोत्र का नाम लघुनमस्कारचक्र है, किन्तु इसका सम्यक् अवलोकन करने से स्पष्ट होता हैं कि यह स्तोत्र बृहन्नमस्कारचक्र के समान ही विशद एवं गूढ़ विषयवाला है। ___ इस कृति के प्रारम्भ में तीर्थकर परमात्मा, विबुधचन्द्रसूरि (रचनाकर्ता के गुरु) एवं यशोदेवमुनि (रचनाकार के दादा गुरु) को नमस्कार करके 'लघुनमस्कारचक्र' को कहने की भावना अभिव्यक्त की गई है। इसके पश्चात् नमस्कारचक्र की आलेखन विधि का विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया गया है। इसमें चक्र को आठ वलय वाला बताया है। इसके साथ ही प्रत्येक वलय में लिखने योग्य मंत्र व गाथाएँ, मंत्रों की जाप विधि, मंत्रों का प्रभाव, मंत्र सिद्धि से होने वाले कार्य, इत्यादि का सुन्दर विवेचन ' यह कल्प उक्त नाम से 'भैरवपद्मावती कल्प' के तीसरे परिशिष्ट के रूप में (पृ. १५-२०) पर प्रकाशित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704