Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/539
सम्बद्ध है २. परमेष्ठीविद्या साधने योग्य मनुष्य का लक्षण ३. परमेष्ठी विद्या (यंत्र) साधित करने की विधि ४. परमेष्ठीविद्या की साधना करने से प्राप्त होने वाले फल का कथन। ५. कुंडलिनी के आधार पर परमेष्ठी विद्या की साधना विधि ६. ध्यान में विध्न करने वाले क्षुद्रजंतुओं एवं व्यंतरों को शान्त करने की विधि। इसके अतिरिक्त कुंडलिनी के विषय में विशिष्ट जानकारी दी गई है। जैनाचार्यों में कुंडलिनी के विषय में इतना स्पष्ट विवेचन किसी के द्वारा किया गया हो, ऐसा देखने में नहीं आया है इस दृष्टि से इस रचना का महत्त्व सविशेष है।
स्पष्टतः प्रस्तुत कल्प में यंत्र-आलेखन-विधि के साथ-साथ यंत्र उपासना विधि और उसका फलादेश विषयक वर्णन सम्यक् रूपेण विवेचित है। पंचनमस्कृतिस्तुतिः
इस स्तोत्र के कर्ता खरतरगच्छीय जिनप्रभसूरि है। ये १४ वीं शती के प्रतिभाशाली विद्वान के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। इन्होंने स्तोत्र साहित्य की विधा में अनेक कृतियाँ रची हैं। यह कृति संस्कृत पद्य में है प्रारम्भ के इकतीस पद्य अनुष्टुप वृत्त में हैं तथा अन्त के दो श्लोक शार्दूलविक्रीडित वृत्त में है। इस कृति के नाम से तो यह ज्ञात होता है कि इसमें पंचपरमेष्ठी की स्तुति ही होनी चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं है। इसमें पंचपरमेष्टी की स्तुति ही होनी चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं हैं। इसमें पंचपरमेष्टी की स्तुति के सिवाय उसकी जपविधि, ध्यानविधि और उसके फल भी निरूपित हैं।
प्रस्तुत कृति में उल्लिखित जाप विधि, ध्यान विधि एवं फल कथन से सन्दर्भित कुछ तथ्य इस प्रकार द्रष्टव्य हैं।
जो साधक पंच नमस्कारमंत्र को कर्णिकासहित आठ पत्र वाले हृदय कमल में स्थापित करके ध्यान करता है वह संसार सागर से शीघ्र पार
हो जाता है। • अरिहंतादि पाँच पदों का परमेष्टि मुद्रा पूर्वक ध्यान करने वाली आत्मा
गूढ़ कर्मग्रन्थि को शीघ्र क्षय कर देती हैं। • परमेष्ठि के सोलह अक्षर वाले मंत्र का ध्यान करने से एक उपवास का
फल प्राप्त होता है। • जो पुरुष एक लाख जाप द्वारा पंच-नमस्कारमंत्र की विधिपूर्वक आराधना
करता है वह पाप से मुक्त होकर तीर्थंकरपद को प्राप्त करता है। • जो साधक पंचनमस्कार का विधिपूर्वक स्मरण (ध्यान) करता है उसे
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