Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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486/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
चौदहवाँ परिच्छेद 'जैनशासनदेव लक्षण' से सम्बन्धित है। इसमें निर्वाणकलिका के अनुसार यक्ष-यक्षिणी का कोष्टक, शिल्प के आधार पर यक्ष-यक्षिणी का कोष्टक, दिक्पालयन्त्र, नवग्रहयन्त्र, सोलहविद्यादेवीयन्त्र दिये गये हैं और श्रुतदेवता, शान्तिदेवता, क्षेत्रपालदेव के लक्षण कहे गये हैं। पन्द्रहवें परिच्छेद का नाम 'धारणागति लक्षण' है। इसमें २४ तीर्थंकरों के वर्ण, लांछन आदि का कोष्टक, धारणागति का कोष्टक एवं २४ तीर्थंकरों के नक्षत्रादि छः अंगों का कोष्ठक दिया गया है। सोलहवाँ परिच्छेद ‘मुहूर्त लक्षण' प्रतिपादन करता है। इस परिच्छेद में दिन विभाग के शुभाशुभ मुहूर्त, रात्रि विभाग के शुभाशुभ मुहूर्त, वर्षशुद्धि, अयनशुद्धि, मासशुद्धि, पक्षशुद्धि, गुरुशुक्रचन्द्रास्त शुद्धि, कूर्मचक्र, गृहद्वारशाखचक्र, वस्त्रचक्र, द्वारचक्र, स्तंभचक्र, मोक्षचक्र, कलशचक्र आदि का वर्णन किया गया है। इसके साथ ही इसमें तिथि, वार नक्षत्र, योग, करण, लग्नबल इत्यादि का भी विस्तृत प्रतिपादन है। इसमें गृहारंभ, भूम्यारंभ, कूर्मन्यास, द्वारारोपण, स्तंभारोपण, पट्टकारोपण, कलशारोपण, ध्वजारोपण इत्यादि के मुहूर्त भी बताये गये हैं। सत्रहवाँ परिच्छेद 'मुद्रालक्षण' नाम का है। इस अन्तिम परिच्छेद में प्रतिष्टोपयोगी छब्बीस और जाप-अनुष्ठानोपयोगी सात मुद्राएँ कही गई है। इसके साथ ही कल्याणकलिका ग्रन्थ का प्रथम विभाग समाप्त होता है।
संक्षेपतः कल्याणकलिका अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण रचना है। 'नव्यप्रतिष्ठापद्धति' के नाम से रचा गया यह ग्रन्थ उत्तरोत्तर प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है। साथ ही यह ग्रन्थ स्वोपज्ञ गुजराती भाषा की टीका सहित प्रकाशित किया गया है। इस ग्रन्थ की प्रस्तावना बहुत उपयोगी सिद्ध हुई है। इस ग्रन्थ की शैली सहज सरल है। कल्याणकलिका (भाग २-३)
यह ग्रन्थ' कल्याणविजयगणि द्वारा विरचित है। इस ग्रन्थ पर गुजराती भाषा में स्वोपज्ञ टीका रची गयी है। यह संस्कृत के १८१ पद्यों में निबद्ध है। इसका रचनाकाल विक्रम की १७ वीं शती है। यह इक्कीस परिच्छेदों में विभक्त एक बृहद्काय रचना है।
इस कृति का मुख्य प्रयोजन प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधि-विधानों को प्रस्तुत करना है। कृति के नाम को लेकर यह चिन्तन उभरता है। कि जब इस ग्रन्थ में
' यह ग्रन्थ शा. मीठालाल भूरमल, श्री कल्याणविजयगणि शास्त्र संग्रह समिति, जालोर (राज.) ने, सन् १६५६ में प्रकाशित किया है। यह प्रथमावृत्ति है।
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