Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/485
पाषाण एवं इष्ट की शिला में विशेषता, कूर्म का स्वरूप और मान, दक्षिणपद्धति के अनुसार कूर्मशिला का लक्षण, कलश-कमल-कूर्म और योगनाल का मान, आधारशिला के ऊपर कलश आदि की स्थापना करने का क्रम और कूर्म का परिमाण इत्यादि विषयों का वर्णन हुआ है। छठे परिच्छेद का नाम 'शिला लक्षण' है। यह परिच्छेद शिलाओं की संख्या, शिलाओं का स्वरूप, शिलाओं की लम्बाई-चौडाई, जिनालय की नन्दादि ८ शिलाएँ, शिलाओं पर चिन्ह, उपशिलाएँ आदि से सम्बन्धित है। सातवाँ परिच्छेद 'वास्तुमर्मोपमर्मादि लक्षण' नाम का है। इस द्वार में यह जानने योग्य हैं कि जिन चैत्य का निर्माण करने के लिए भूमिखनन-शिलास्थापन आदि कृत्य करते हैं उस समय वास्तुभूमि में जहाँ-जहाँ मर्म, उपमर्म, सन्धियाँ और रज्जु दिखाई देते हों वहाँ स्तंभ दीवार आदि खड़े नहीं करने चाहिए।
आठवाँ परिच्छेद 'वास्तुमंडलविन्यास लक्षण' से सम्बन्धित है। इसमें निर्वाणकालिका, बृहत्संहिता एवं शिल्प शास्त्र के अनुसार वास्तुमण्डल संबंधी पाँच चक्र (कोष्ठक) दिये गये हैं। नवमाँ परिच्छेद ‘प्रासाद लक्षण' का वर्णन करता है। इसके प्रारम्भ में प्रासाद उत्पत्ति का इतिहास बताया गया है। इसके साथ ही वास्तुक्षेत्र, वास्तुदोष, आय के नाम, प्रकार, फलादि, वास्तु में क्या-क्या नहीं लेना चाहिए?, चन्द्रवास को कैसे जाना जा सकता है?, जगती, पीठ, मंडोवर, द्वारशाख, रेखा, कलश, ध्वजा, ध्वजादण्ड, शिखर, मण्डप, स्तम्भ आदि का विस्तृत वर्णन हुआ है। दशवाँ परिच्छेद 'कलश लक्षण' से सम्बन्धित है। इसमें कलश की ऊँचाई आदि का निरूपण हुआ है। ग्यारहवाँ परिच्छेद 'ध्वजदण्ड-लक्षण' नाम का है। इसमें दण्ड की लम्बाई, मोटाई, दण्ड की पाटली और ध्वजा का परिमाण बताया गया है। बारहवें परिच्छेद का नाम 'जिनप्रतिमा-लक्षण' है इस परिच्छेद में उर्ध्वस्थित प्रतिमा का स्वरूप, आसनस्थित प्रतिमा का स्वरूप, भग्न प्रतिमा का संस्कार विचार, लक्षणहीन प्रतिमा से हानि, प्रतिमागत शुभाशुभरेखाएँ, प्रतिमा भंग का फल, खंडित प्रतिमा के विषय में भिन्न-भिन्न मान्यता, गृह और प्रासाद में स्थापनीय प्रतिमा का मान, गृह चैत्य में पूजने योग्य, रखने योग्य प्रतिमा के विषय में विवेक, जिनालय में प्रतिमा का स्थान और दृष्टिस्थान के सम्बन्ध में विवेक आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। तेरहवें परिच्छेद का नाम ‘परिकर लक्षण' है। इसमें वास्तुसार के अनुसार परिकर का परिमाण बताया गया है।
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