Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/495
सकलचन्द्रगणिकृत प्रतिष्ठाकल्प की संशोधित प्रति
प्रस्तुत 'प्रतिष्ठाकल्प' की एक संशोधित प्रति परिशिष्ट एवं विधिसहित वि.सं. २०४२ में प्रकाशित हुई है। यह प्रति सोमचंद्र विजयगणि के द्वारा संशोधित की गई है। इस संशोधित प्रति में विधि-विधान विशेष रूप से चर्चित हुए हैं जो मूल पाठ में नही हैं अब मूलप्रति की अपेक्षा संशोधित प्रति में पायी जाने वाली विशिष्टताएँ इस प्रकार हैं - प्रथम दिन की विधि- पहले दिन किया जाने वाला जलयात्रा विधान मूल कृति के अन्तर्गत संक्षेप में बताया गया है, परंतु शांतिस्नात्रादिविधिसमुच्चय भाग-१ में से विस्तारपूर्वक करवाया जाता है वह अपेक्षित होने से इस संशोधित प्रति में दिया गया है। वर्तमान में यह विधान कुंभस्थापना के पूर्व दिन किया जाता है।
मूलप्रति में मंत्रोच्चारपूर्वक कलशस्थापना करना और आरोपण करना-इतना ही सूचन है परंतु वर्तमान में कुंभस्थापना दीपकस्थापना और जवारारोपण की विधि कुछ विस्तार के साथ की जाती है। अतः वह शांतिस्नात्रादि विधिसमुच्च्यभाग १ में से उद्धृत की गयी है। इसके साथ ही कुंभ-दीपक को बधाने का श्लोक तथा दीपक को
अधिवासित करने योग्य मंत्र संशोधित प्रति में दिये गये है। द्वितीय दिन की विधि- मूलप्रत में लघुनन्द्यावर्त्तपूजन विधि आठवलय के अनुसार कही गई है परन्तु दस वलयवाला (६४ इन्द्र-इन्द्राणी के नामवाला) पट्ट हो तो उसके पूजन करने की विधि शान्तिस्नात्रादिविधिसमुच्चय भाग-२ से लेकर इस प्रति के परिशिष्ट नं. १ में दी गई है। अन्तिम में देववंदन में चार स्तुतियाँ के स्थान पर आठ स्तुतियों करने को कहा गया है। तृतीय दिन की विधि- इस दिन की विधि में दशदिक्पाल का पूजन करते समय इन्द्रादि दिक्पालों के मन्त्र प्रत्येक हस्तप्रतों में भिन्न-भिन्न मिलते हैं इस प्रत में (शां.वि.स.भा.१) से प्रचलित मन्त्र लिये गये है। सोलह विद्यादेवियों का पूजन मूलप्रत में संक्षेप में कहा गया है। किन्तु आचारदिनकर, अर्हत्पूजनादि में दिये गये सोलह विद्यादेवियों के श्लोक बोलकर विस्तार से पूजन करना हो तो वह विधि परिशिष्ट नं. १ में दी गई है।
मूलप्रत में अष्टमंगलपूजन का विधान ही नहीं बतलाया है परंतु नवग्रह एवं दश दिक्पाल पूजन के साथ अष्टमंगल का पूजन भी किया जाता है इसलिए (शां.वि.सं.भा.१) के अनुसार यह विधान दूसरे दिन की विधि में ही दिया गया है। चतुर्थ दिन की विधि- इस दिन की विधि में श्री सिद्धचक्र पूजन करते समय नवपदों का जाप किया जायें, तो उत्तम है इसलिए जाप करने का सूचन किया है
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