Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
View full book text
________________
480/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
में तथा कवित्व के रूप में प्रगट करना ये कवि की अपनी विशेषता है। इसमें वर्णित शक्तियों के नाम निम्न हैं - १. जीवन २. चिति ३. दृशि ४. ज्ञान ५. सुख ६. वीर्य ७. प्रभुत्व ८. विभुत्व ६. सर्वदर्शित्व १०. सर्वज्ञत्व ११. स्वच्छत्व १२. प्रकाश १३. असंकुचित विकासत्व १४. अकार्यकारण १५. परिणम्य परिणामात्मक १६. त्यागोपदान शून्यत्व १७. अगुरुलघुत्व १८. उत्पाद-व्यय-ध्रुवत्व २०. परिणाम २१. अमूर्तत्व २२. अकर्तृत्व २३. अभोक्तृत्व २४. निष्क्रियत्व २५. नियतप्रदेशत्व २६. स्वधर्म व्यापकत्व २७. साधारण असाधारण २८. अनंत धर्मत्व २६. विरुद्ध धर्मत्व ३०. तत्त्व ३१. अतत्त्व ३२. एकत्व ३३. अनेकत्व ३४. भाव ३५. अभाव ३६. भावाभाव ३७. अभाव-भाव ३८. भाव-भाव ३६. अभावाभाव ४०. क्रिया ४१. कर्म ४२. कर्तृत्व ४३. करण ४४. संप्रदान ४५. अपादान ४६. अधिकरण ४७. संबंध
इस विधान के अन्त में १२५ ध्यानसूत्र दिये गये हैं जो नित्य मननीय हैं।' क्षेत्रपालमण्डलविधान
यह रचना विधानाचार्य श्री भंवरलालजी कासलीवाल द्वारा संग्रहीत की गई है। यह संस्कृत एवं हिन्दी पद्य में गुम्फित है। इसमें मन्त्रों का प्रयोग बहुलता के साथ हुआ है। श्री क्षेत्रपाल मण्डल विधान के समय जो-जो विधियाँ प्रयुक्त की जाती हैं वे क्रमशः निम्नलिखित हैं -
सर्वप्रथम अंगन्यास, सकलीकरण, दिशाओं में अर्घ और पंचामृत अभिषेक करते हैं। उसके बाद विनायक सिद्धयन्त्र की पूजा, नवदेवता की पूजा, श्री पार्श्वनाथ की पूजा, धरणेन्द्र की पूजा एवं समुच्चय नवदेवता की पूजा करते हैं। तदनन्तर पंचपरमेष्ठी की पूजा, जिनधर्म की पूजा, जिनवाणी का पूजन, जिनचैत्य की पूजा, जिन चैत्यालय की पूजा करते हैं। फिर नवग्रह की पूजा एवं नवग्रह का जाप करते हैं। तत्पश्चात् क्रमशः मणिभद्र क्षेत्रपाल, वीरभद्र क्षेत्रपाल, तुंगभद्र क्षेत्रपाल, अपराजित क्षेत्रपाल,जय क्षेत्रपाल, विजयभद्र क्षेत्रपाल, भैरव क्षेत्रपाल, महाक्षेत्रपाल की पूजा करते हैं। उसके बाद वास्तुविधान, हवनविधि, लघुशांतिधारा विधान, समुच्चयअर्घ और शान्तिपाठ करते है। इसके अनन्तर पंचपरमेष्ठी की आरती, श्री शान्तिनाथ भगवान की आरती, श्री पार्श्वनाथ भगवान की आरती, श्री महावीर स्वामी की आरती, श्री मणिभद्र की आरती, श्री अष्ट
' प्रका. भरत पवैया, तारादेवी पवैया ग्रन्थमाला, ४४ इब्राहिमपुरा, भोपाल २ यह कृति जैन धर्मानुयोगी बीसपन्थी दिगम्बर जैन मन्दिर देवरां की गली, नागौर (राज.) से सन् २००३ में प्रकाशित हुई है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org