Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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438 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
आराधना दीपिका
यह संकलित कृति ' है तथा गुजराती गद्य-पद्य में निबद्ध है। इसमें विविध-विषयों का उपयोगी संग्रह है। इसमें विविध विषयों का उपयोगी संग्रह हैं। इस पुस्तक में विधि-विधानों की दृष्टि से अग्रलिखित विषयों का निरूपण किया गया है।
ये हैं १. जिन मंदिर में प्रवेश करने की विधि २. जिनपूजा विधि ३. चैत्यवंदन विधि ४. सिद्धचल तीर्थ की भावयात्रा का विधान ५. बीस स्थानक तप, जिनकल्याणक तप, नवपदआराधना तप आदि की विधियाँ भी इसमें वर्णित हैं। आचार्यस्नात्रविधि
यह रचना उपलब्ध नहीं है तथापि कृति नाम से ज्ञात होता है कि इसमें आचार्य की प्रतिमा का स्नात्र विधान कहा गया है।
इन्द्रध्वजपूजा - यह रचना विश्वभूषण भट्टारक की है। इन्द्रध्वजाविधान - इसके कर्त्ता शुभचन्द्र है।
इन्द्रध्वजाविधान - यह अज्ञातकृतक है।
इन्द्रध्वजाविधान इसकी रचना दिगम्बरीय आर्यिका ज्ञानमती जी ने की है। यह विधान' हिन्दी पद्य में हैं किन्तु इस ग्रन्थ रचना का मूल आधार संस्कृत कृति ही रही हैं। इस महाविधान में कुल ५० पूजाएँ हैं। इस इन्द्रध्वज विधान में सुमेरु पर्वत से प्रारंभ कर तेरहवें रुचकवर पर्वत पर्यन्त मध्यलोक के सर्व चैत्यालयों की पूजा की जाती है इसमें कुल ४५८ चैत्यालय हैं। अतः ४५८ अर्ध्य हैं, ६८ पूर्णार्थ्य हैं और ५१ जयमालाएँ हैं। इसमें पूजाओं का क्रम मूल ग्रन्थ के आधार अनुसार है। मध्यलोक के पाँचों मेरुओं की पूजाओं में एक - एक समुच्चय और भद्रसाल, नन्दन, सोमनस एवं पांडुक इन चार-चार वन सम्बन्धी पृथक्-पृथक् चार-चार पूजाएँ हैं। ऐसे एक-एक मेरू सम्बन्धी पाँच-पाँच पूजाएँ होने से पूजाओं की संख्या ७० भी हो जाती है। किन्तु उनकी जयमाला एक होने से उन पाँच-पाँच पूजाओं को एक-एक ही माना गया है । अतः ५० पूजाएँ ही मानी गई हैं। अन्त में एक बड़ी जयमाला है जो
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इस पुस्तक का संकलन प्रेमसूरी जी के शिष्य चरणप्रभविजय जी ने किया है। इसका प्रकाशन 'श्री आराधना साहित्य प्रकाशन समिति, अहमदाबादबाद से हुआ है।
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जिनरत्नकोश पृ. २६
३ यह ग्रन्थ वी.सं. २५२६ में, दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर' से प्रकाशित है। यह ११ वाँ संस्करण है।
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