Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 373
व्यवहार विवरण
प्रस्तुत विवरण (टीका) मूलसूत्र, निर्युक्ति एवं भाष्य पर है। इसके टीकाकार आचार्य मलयगिरि है। उनके जीवनवृत्त के बारे में इतिहास में विशेष सामग्री नहीं मिलती। न ही उनकी गुरु परम्परा का उल्लेख मिलता है।
ये हेमचन्द्र के समवर्ती थे। उनके साथ उन्होंने विशिष्ट साधना से विद्यादेवी की आराधना की थी। देवी से उन्होंने जैन आगमों की टीका करने का वरदान मांगा था। इनका समय विद्वानों ने १२ वीं शती के आसपास माना है। आचार्य मलयगिरि की प्रसिद्धि टीकाकार के रूप में अधिक हुई है। ये टीकाएँ विषय-वैशद्य एवं निरूपण कौशल दोनों दृष्टियों से सफल है।
मलयगिरि विरचित निम्नोक्त आगमिक टीकाएँ आज भी उपलब्ध हैं १. व्याख्याप्रज्ञप्ति, २. राजप्रश्नीय टीका, ३. जीवाभिगम टीका, ४. प्रज्ञापना टीका, ५. चन्द्रप्रज्ञप्ति टीका, ६. सूर्यप्रज्ञप्ति टीका, ७. नन्दी टीका, ८. व्यवहार वृत्ति, ६. बृहत्कल्पपीठिका वृत्ति, १०. आवश्यक वृत्ति, ११. पिण्डनिर्युक्ति टीका, १२. ज्योतिष्करण्डक टीका ।
उनकी निम्नलिखित आगमिका टीकाएँ अनुपलब्ध हैं १. जम्बूदीप प्रज्ञप्ति टीका, २. ओधनिर्युक्ति टीका, ३. विशेषावश्यक भाष्य टीका । इनके अतिरिक्त मलयगिरि की अन्य ग्रन्थों पर सात टीकाएँ और उपलब्ध हैं एवं तीन टीकाएँ अनुपलब्ध हैं। इनका एक स्वरचित शब्दानुशासन भी उपलब्ध है। इस प्रकार आचार्य मलयगिरि ने कुल छब्बीस ग्रन्थों का निर्माण किया, जिनमें पच्चीस टीकाएँ हैं। यह ग्रन्थराशि लगभग दो लाख श्लोकपरिमाण है। स्पष्टतः ये आचार्य आगमिक टीकाकारों में सबसे आगे रहे हैं। इनकी पाण्डित्यपूर्ण टीकाओं की विद्वत्समाज में बड़ी प्रतिष्ठा है । '
व्यवहार टीका संस्कृत गद्य-पद्य मिश्रित भाषा में है। इस विवरण का ग्रन्थमान ३४६२५ श्लोक प्रमाण है।
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ग्रन्थ के प्रारम्भ में टीकाकार ने सर्वप्रथम भगवान् नेमिनाथ, अपने गुरुदेव एवं व्यवहार चूर्णिकार को सादर नमस्कार किया है तथा व्यवहार सूत्र का विवरण लिखने की प्रतिज्ञा की है । इस विवरण के प्रारम्भ में प्रस्तावना रूप पीठिका है जिसमें कल्प, व्यवहार, दोष, प्रायश्चित्त आदि पर प्रकाश डाला गया है। इस सम्बन्धी विधि-विधानों का भी उल्लेख किया गया है। यहाँ कल्प (बृहत्कल्प) सूत्र और व्यवहार सूत्र का अन्तर स्पष्ट करते हुए प्रारम्भ में ही आचार्य कहते हैं
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा. ३, पृ. ४३
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