Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
View full book text
________________
372/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
प्रतिमाओं के विवेचन में तत्सम्बन्धी काल, शिक्षा परिमाण, कल्पादि ग्रहण का प्रयोजन, मोकप्रतिमा का स्वरूप, मोक प्रतिमा सम्पन्न कर उपाश्रय में अनुसरणीय विधि आदि आवश्यक बातों पर संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है। दशम उद्देशक - इस उद्देशक में यवमध्य प्रतिमा और वज्रमध्य-प्रतिमा की विधि पर विशेष रूप से विचार किया गया है। पाँच प्रकार के व्यवहार की उपयोग विधि का विस्तृत विवेचन करते हुए बालदीक्षा की विधि पर भी प्रकाश डाला गया है। दस प्रकार की सेवा का वर्णन करते हुए उससे होने वाली महानिर्जरा का भी निरूपण किया गया है। निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के माने गये हैं। इनके लिए विविध प्रकार के प्रायश्चित्तों का विधान किया गया है प्रायश्चित्त दस प्रकार के कहे गये हैं। किसके लिए कितने प्रायश्चित्त हो सकते हैं जैसे पुलाक के लिए छः प्रकार के प्रायश्चित्त है। निर्ग्रन्थ के लिए आलोचना और विवेक इन दो प्रायश्चित्तों का विधान है। स्नातक के लिए केवल एक प्रायश्चित्त विवेक का विधान किया गया है।
इसके अन्तर्गत और भी विधि-विधान प्राप्त होते हैं वे इस प्रकार हैं - १. वृषभ क्षेत्र के प्रकार तथा वहाँ रहने की विधि, २. अभिधार्यमाण आचार्य के जीवित और कालगत होने पर संपादनीय विधि, ३. सामायिक आदि पाँच प्रकार के निर्गन्थ तथा उनके प्रायश्चित्तों का विधान, ४. असंविग्न के समीप अनशन करने के दोष और प्रायश्चित्त विधान, ५. रत्नत्रयी संबंधी अतिचारों की आलोचना विधि, ६. कालगत अनशनकर्ता की चिहकरण, प्रकार और विधि ७. दूरस्थ आचार्य के पास आलोचना करने की विधि में आज्ञाव्यवहार का निर्देश तथा शिष्य की परीक्षा-विधि, ८. आचारांग आदि अंगों की अध्ययन विधि आदि।
उपर्युक्त विवरण से यह ज्ञात होता है कि व्यवहार भाष्य एक आकर ग्रन्थ है। इसमें अनेक विषयों का समावेश है। टीकाकार मलयगिरि ने इस पर टीका लिखकर इसको और अधिक प्रशस्त बना दिया है। यद्यपि इस ग्रन्थ का मुख्य प्रतिपाद्य प्रायश्चित्त देकर साधक की विशोधि करना है, परन्तु इस प्रतिपाद्य के परिवार्श्व में ग्रंथकार ने और भी अनेक तथ्यों का प्रतिपादन किया है। प्रस्तुत ग्रंथ भाष्यकालीन सभ्यता एवं संस्कृति पर विशद प्रकाश डालता है। ग्रंथकार ने जैन परम्परागत विधि-विधानों का अविकल संकलन कर उनकी पारंपरिकता को अविच्छिन्न रखा है।
इसमें पाँचों व्यवहारों के संदर्भ में अनेक महत्त्वपूर्ण मंतव्यों का उल्लेख प्राप्त होता है। यहाँ हमने भाष्यगत विधि-विधान परक विषयों का ही निरूपण किया है।
वधि-नामपरकाषा का ही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org