Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/431
विशेष स्नात्र करने) के लिए प्रभास, वरदान, मागध आदि तीर्थों के अधिपतियों का आह्वान करने सम्बन्धी वर्णन है। इसके अन्त में प्रशस्त नदियाँ, समुद्र और तीर्थों के जल की घोषणापूर्वक साक्षात् तीर्थंकरों के अभिषेक का स्मरण करते हुए जिन-स्नात्र-विधि करने के लिए उपदेश दिया गया है।
चतुर्थ पर्व में जिनबिम्ब के लिए सर्वोषधि स्नान का वर्णन है। कुंकुम-चन्दनादि सौगंधिक स्नात्र के प्रसंग में मज्जन जल का उल्लेख है। इसी अनुक्रम में जिनप्रतिमा, जिनअभिषेक आदि के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए निर्देश दिया गया है कि जो जिनप्रासाद, जिनबिंब, जिनपूजा, जिनयात्रा, जिनस्नात्र आदि के विषय में मिथ्या-प्ररूपणा करता है वह मोक्षमार्ग को अवरुद्ध कर लेता है तथा जो जीव अभिषेक आदि महोत्सव को भलीभाँति सम्पन्न करता है वह अरिहन्त के गुण-विशेष को जानने वाला होता है।
इसमें यह भी वर्णित है कि कितने ही जीव चैत्यालय के दर्शन करने से, कितने ही वीतराग बिंब के दर्शन करने से, कितने ही पूजातिशय को देखकर तथा कितने ही जीव आचार्यादि के उपदेश से बोध को प्राप्त होते हैं। प्रस्तुत विषय में यह भी कहा गया है कि जिनभवन, जिनबिंब और जिनपूजा के संबंध में यथार्थ उपदेश देने वाला तीर्थंकरनामगोत्र का उपार्जन करता है। साथ ही जो अरिहंत परमात्मा की धन, रत्न, सुवर्ण, माला, वस्त्र, विलेपन आदि द्वारा पूजा करता है वह जीव जन्म-मरण की परंपरा का नाश कर देता है।
पंचम पर्व में सभी प्रकार के धान्य, सभी प्रकार के पुष्प, पाक, शाक, फल, दधि आदि के द्वारा बलि विधान करने का उल्लेख किया है। इसके साथ ही कई महत्त्व के बिन्दु निर्दिष्ट किये गये हैं जैसे कि जिनबिंब के सम्मुख बलि के तीन पुंज रखने चाहिये। तीर्थकर परमात्मा अद्वितीय दीप के समान है अतः मंगलदीपक करना उचित है। तीर्थकर प्रभु की आरती कल्याण के लिए की जाती है। अरिहंत बिंब का जल-स्नपन ताप को हरने वाला होता है। नमक (लूण) अवतारण श्रेय के लिए है।
___इसी क्रम में और भी निर्देश हैं कि दिक्पालों को बलि प्रदान करते समय एवं जिन मंदिर की प्रदक्षिणा करते समय शांति की उद्घोषणा करनी चाहिए। अर्हदभिषेक की विधि सम्पन्न होने पर जिनचैत्य का वन्दन करने के लिए आह्वान करना चाहिये। पुष्पों और धूपादि के द्वारा दिक्पालों एवं अन्य देवों का सम्मान करके उन्हें स्व-स्व के अधिवास में भेजना चाहिये।
__ ग्रहपीड़ा को उपशांत करना हो तो नवग्रहों से मंडित जिनप्रतिमा का स्नात्र करना चाहिये। पूजित हुए बलवान ग्रह अत्यंत बलवान् बन जाते हैं, दुर्बल
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