Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
View full book text
________________
408 / योग - मुद्रा - ध्यान सम्बन्धी साहित्य
कहें तो प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रथम प्रकाश में योग की आवश्यकता, मोक्ष का कारण योग, ज्ञानन-दर्शन- चारित्र योग, गृहस्थ धर्म का पालन करने के लिए आवश्यक गुण, योग की शक्ति आदि का वर्णन हुआ है।
दूसरे प्रकाश में सम्यक्त्वव्रत सहित पाँच अणुव्रतों का विवेचन है। तीसरे प्रकाश में तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत, बारहव्रतों के अतिचार, श्रावक की दिनचर्या, श्रावक के मनोरथ एवं श्रावक के अन्तिम क्रिया की विशेष विधि का उल्लेख हुआ है। चौथे प्रकाश में क्रोधादि कषाय का स्वरूप, मन शुद्धि की आवश्यकता, राग-द्वेष को जीतने के उपाय, समभाव की साधना के लिए बारह भावना, ध्यान करने का स्थान कैसा हो ? इत्यादि का विवेचन है । पाँचवां प्रकाश प्राणायाम से सम्बन्धित है। इसमें प्राणायाम की विधि, प्राणायाम के प्रकार, नाडी शोधन की रीति और उसका फल, वेध करने की विधि, अन्य के शरीर में प्रवेश करने की विधि इत्यादि का वर्णन हुआ हैं । छट्ठे प्रकाश में प्रत्याहार और धारणा इन दो अंगों का उल्लेख हैं। सातवें प्रकाश में ध्याता, ध्येय, धारणा और ध्यान के विषयों की चर्चा है। आठवें प्रकाश में विभिन्न प्रकार के ध्यान बताये गये हैं उनमें पदस्थ ध्यान, मंत्र देवता का ध्यान, प्रणव ध्यान, पंचपरमेष्ठीमंत्र का ध्यान, ह्रींकार विद्या का ध्यान आदि प्रमुख है। नवमें प्रकाश में रूपस्थ ध्यान की विधि और उसका फल कहा गया है । दशवें प्रकाश में रूपातीत ध्यान एवं धर्मध्यान की विधि और उसका फल बताया गया है। ग्यारहवें प्रकाश में शुक्लध्यान विधि, घाति कर्म के क्षय से होने वाला फल, सामान्य केवली के कर्त्तव्य आदि का विवेचन है। बारहवाँ प्रकाश विविध विषयों से सम्बन्धित है। इसमें मुख्य रूप से परमात्मा का स्वरूप, परमानंद प्राप्ति का क्रम, मन को शान्ति देने वाला मार्ग, मन को जीतने के उपाय, उदासीनता का फल, उपदेश का रहस्य आदि विषय चर्चित हुए हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ की स्वोपज्ञवृत्ति (प्र. १२, श्लोक ५५ एवं प्र. १ श्लोक ४) के अनुसार हेमचन्द्राचार्य ने यह कृति कुमारपाल राजा की अभ्यर्थना पर बनायी थी। ऐसा कहा जाता है राजा कुमारपाल वीतरागस्तोत्र के बीस प्रकाशों और योगशास्त्र के बारह प्रकाशों का पाठ प्रतिदिन करते थे। निस्सन्देह योग - शास्त्र जैन तत्त्व-ज्ञान, आचार-विधि एवं योग-साधना का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस समग्र ग्रन्थ को दो भागों में बाँट सकते हैं। प्रकाश एक से चार के प्रथम विभाग में गृहस्थधर्म की चर्चा है, शेष पाँच से बारह प्रकाशों में प्राणायाम आदि की चर्चा है।
स्वोपज्ञवृत्ति - ग्रन्थकार ने स्वयं योग- शास्त्र पर वृत्ति रची है वह १२००० श्लोक परिमाण है। यह वृत्ति विविध अवतरणों से समृद्ध है। इसके तीसरे प्रकाश के १३० वें श्लोक की वृत्ति में प्रतिक्रमण विधि से सम्बद्ध ३३ गाथाएँ किसी प्राचीन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org