Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 401
परिवर्तन कर उनको संतुलित करती हैं, जिससे शरीर को स्वास्थ्य लाभ मिलता है। साथ ही मानसिक शान्ति और चित्त की प्रसन्नता भी बढ़ती है। अधिकांश मुद्राएँ इस प्रकार की हैं कि वे पैंतालीस मिनट में तत्त्व परिवर्तन कर देती हैं और कुछ मुद्राएँ उससे भी कम समय में अपना प्रभाव दिखा देती हैं। अधिकाधिक लाभ प्राप्त करने के लिए यह ध्यान रखना चाहिए कि एक हाथ की बजाय दोनों हाथों से मुद्रा का प्रयोग किया जाये ।
प्रस्तुत पुस्तक में पूर्वोक्त दोनों प्रकार की मुद्राओं का विवेचन किया गया है। इसमें कुल ४७ मुद्राओं का परिचय है। इसमें प्रत्येक मुद्रा को बनाने की विधि, मुद्रा की अवधि, मुद्रा के परिणाम, मुद्रा का आसन इत्यादि का भी यथावश्यक वर्णन किया गया है।
विस्तार भय से ४७ मुद्राओं का नामोल्लेख मात्र कर रहे हैं। ये मुद्राएँ सचित्र उल्लिखित हुई हैं। उनके नाम निम्न हैं
१. ज्ञान-मुद्रा, २. पूर्णज्ञान - मुद्रा, ३. वैराग्य-मुद्रा, ४. अभय मुद्रा, ५. ध्यान-मुद्रा,
सूर्य-मुद्रा, ६. वरुण - मुद्रा,
१०. पृथ्वी - मुद्रा,
१३.
१४.
लिंग मुद्रा, १५.
संकल्प - मुद्रा, १६.
१७.
सुरभि - मुद्रा, सूर्यप्रदर्शनी - मुद्रा, सम्मुखीकरण - मुद्रा, २२. सन्निधापनी-
-मुद्रा,
६. वायु-मुद्रा, ७. शून्य - मुद्रा, ८. ११. प्राण-मुद्रा, १२. अपान मुद्रा, वयन-मुद्रा, १६. उपसंहार - मुद्रा, मत्स्य - मुद्रा, २० सम्बोधिनी - मुद्रा, २३. सौभाग्यदण्डिनी मुद्रा, २४. तत्त्व - मुद्रा, २५. अंकुश-मुद्रा, २६. सर्वाकर्षिणी- - मुद्रा, २७. कूर्म- मुद्रा, २८. सर्वमहाकुश - मुद्रा, २६. बीज- मुद्रा, ३०. मूशल - मुद्रा, ३१. मुष्ठि - मुद्रा, ३२. प्रार्थना मुद्रा, ३३. त्रैलोक्य-मुद्रा, ३४. वेणु - मुद्रा, ३५. लेलिहा- मुद्रा, ३६. परा-मुद्रा, ३७. कुन्त मुद्रा, ३८. शक्ति - मुद्रा, ३६. पंचमुखी - मुद्रा, ४०. जप- मुद्रा, ४१ घण्टा - मुद्रा, ४२. लक्ष्मी - मुद्रा, ४३. बिल्व - मुद्रा, ४४. आवाहनी - मुद्रा, ४५ काकी - मुद्रा, ४६. भोजन संबंधी पांच मुद्राएँ, ४७. गायत्री संबंधी बत्तीस मुद्राएँ ।
२१.
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१८.
अन्त में अन्य परम्परागत चिकित्साएँ, रेकी चिकित्सा एवं अनुभूत प्रयोग का निर्देश किया गया है। स्पष्टतः यह कृति मुद्रास्वरूप एवं विधि की दृष्टि से अनुपमेय और अमूल्य है।
योग सम्बन्धी जैन ग्रन्थ
आत्म विकास के लिए योग एक प्रमुख साधना है। भारतीय संस्कृति के समस्त विचारकों, तत्त्व - चिन्तकों एवं मननशील ऋषि-मुनियों ने योगसाधना के महत्त्व को स्वीकार किया है।
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