Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/377
भक्ति नहीं करना, अभिग्रह धारण नहीं करना इत्यादि में लगने वाले अतिचारों एवं दोषों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का विधान, ३०. द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-पुरुष प्रतिसेवना के भेद से प्रायश्चित्त के भेद, ३१. द्रव्य-क्षेत्र-काल का स्वरूप, ३२. भावपुरुष का स्वरूप, ३३. प्रतिसेवना के चार और कल्पना के चौबीस प्रकार, ३४. दान, तप काल प्रायश्चित्त के दो-दो भेद, ३५. श्रुतव्यवहार के आश्रित नौ प्रकार के तप, ३६. नौ प्रकार में आपत्ति तप, ३७. गुरूपक्ष, लघुपक्ष और लघुकपक्ष सम्बन्धी नौ प्रकार का दान तप, ३८. वर्षा काल सम्बन्धी दान तप के भेद इत्यादि।
इस कृति के उक्त वर्णन से सूचित होता है कि इसमें मुख्यतः श्रावक के बारहव्रत, सम्यकत्वव्रत एवं ज्ञानाचार आदि पंचाचार सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधान का उल्लेख हुआ है। साथ ही प्रायश्चित्त के अनेक प्रकार, द्रव्यादि की अपेक्षा प्रायश्चित्त दान, तप के अनेक प्रकार, आलोचना के गुण-दोष, योग्य-अयोग्य आदि विषय भी प्रतिपादित हुए हैं। दानतप के सम्बन्ध में दो यंत्र भी उल्लिखित किये हैं उनमें एक यंत्र ८१ विकल्पों में विभक्त है। ये दोनों यंत्र समझने जैसे हैं।
प्रस्तुत कृति की प्रस्तावना के आधार पर यह कहना आवश्यक प्रतीत होता है कि जिस प्रकार यह ग्रन्थ श्रावक प्रायश्चित्त के विषय में सुविख्यात है उसी प्रकार इस ग्रन्थ के कर्ता भी लघु स्तुति-स्त्रोत आदि की रचना के विषय में उस समय के विख्यात मुनि हुए हैं। ग्रन्थकर्ता धर्मघोषसूरि की कई रचनाएँ दृष्टिगत होती है उनमें अजिअसंतिथय, आदिनाह, इसिमंडलथोत्तं, जुगप्पहाणथोत्त, दुसमकालथवण, सर्वजिनस्तुति, साधारणजिनस्तुति, सितुंजकप्पो, गिरनारकल्प, समेतशिखरकल्प, अष्टापदतीर्थकल्प, समवसरणपयरण, जोणिथयं, लोकनालिका द्वात्रिंशिका, संघाचारटीका, कायट्टिइपयरण, कालसप्ततिकापयरण, कायस्थितिस्तव, भवस्थितिस्तव आदि प्रमुख हैं। इन सभी कृतियों में देववंदन भाष्य पर रची गई ‘संघाचारवृत्ति' सबसे बड़ी रचना है। इस ग्रन्थ के कर्ता के विषय में यह उल्लेख भी मिलता है कि इन्होंने मंत्रध्यान से प्राचीन कपर्दियक्ष को प्रतिबोधित किया है। आपके उपदेश से शत्रुजयगिरि ऊपर ऋषभदेव प्रभु के प्रासाद आदि ८४ जिनालयों का निर्माण हुआ है। गिरनार का छह 'री' पालक संघ निकला है और गिरनार तीर्थ के चारों दिशाओं में बारह योजन भूमि परिमाण में रहे हुए सभी जिनालयों पर चाँदी की ध्वजाएँ करवाई हैं और छह ज्ञानभंडार बनवाये हैं। वृत्ति- इस ग्रन्थ पर सोमतिलकसूरि ने एक वृत्ति लिखी है वह २५४७ श्लोक-परिमाण है। इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ पर अज्ञातकर्तृक एक अवचूरि भी है।
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