Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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334 / प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
लिवाना, मोल लेकर देने वाले से ग्रहण करना, उधार लेना-लिवाना आदि, रोगी साधु के लिए तीन दत्ति' से अधिक अचित्त वस्तु ग्रहण करना, अचित्त वस्तु (गुड़ आदि) को पानी में गलाना, अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करना, इन्द्रमहोत्सव, यज्ञमहोत्सव एवं भूत महोत्सव के समय स्वाध्याय करना, चैत्र प्रतिपदा, आषाढ़ी प्रतिपदा, भाद्रपद प्रतिपदा एवं कार्तिक प्रतिपदा के दिन स्वाध्याय करना, आचारांग को छोड़कर अन्य सूत्र पढ़ाना, अयोग्य को शास्त्र पढ़ाना, योग्य को शास्त्र न पढ़ाना, आचार्य उपाध्याय से न पढ़कर अपने आप ही स्वाध्याय करना, पार्श्वस्थ आदि शिथिलाचारियों को पढ़ाना अथवा उनसे पढ़ना इत्यादि ।
बीसवाँ उद्देशक इस बीसवें उद्देशक के प्रारम्भ में सकपट एवं निष्कपट आलोचना के लिए विविध प्रायश्चित्तों का विधान किया गया है। जो साधक निष्कपट आलोचना करता है उस साधक को जितना प्रायश्चित्त आता है उससे कपटयुक्त आलोचना करने वाले को एक मास अधिक प्रायश्चित्त आता है। भगवान् महावीर के शासन में उत्कृष्ट छः मास के प्रायश्चित्त का ही विधान है। इस उद्देशक में प्रथम विविध भंग बताकर प्रायश्चित्त का निरूपण किया गया है। प्रायश्चित्त स्थानों की आलोचना प्रायश्चित्त देने पर और उसके वहन काल में सानुग्रह - निरनुग्रह स्थापित और प्रस्थापित का भी स्पष्ट निरूपण किया गया है।
निशीथसूत्र के प्रस्तुत परिचय से स्पष्ट होता है कि यह प्रायश्चित्त सम्बन्धी विधि-विधान का एक आकर और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । गुरुमासिक, लघुमासिक, गुरु चातुर्मासिक और लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त विधान के योग्य समस्त महत्त्वपूर्ण क्रियाओं का समावेश हुआ है । निःसंदेह यह अन्य आगमों से विलक्षण है।
निशीथनिर्युक्ति
जैन परम्परा में मूल सूत्र के रहस्यों को समझने एवं अभिव्यक्त करने हेतु समय-समय पर विविध व्याख्या साहित्य का निर्माण हुआ है। उनमें नियुक्ति को प्रथम स्थान मिला है। निशीथ के मूलसूत्र पर भी निर्युक्ति लिखी गई है जिसे अतिरिक्त नियुक्तियों में माना जाता है।
निशीथ निर्युक्ति प्राकृत पद्य में है । इस नियुक्ति की गाथाएँ निशीथ भाष्य में इस प्रकार समाविष्ट हो गई हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। जहाँ पर चूर्णिकार संकेत करते हैं वहीं पर यह पता चलता है कि यह नियुक्ति की गाथा है
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एक बार में या एक धार में जितना आहार आहार दिया जाये या ग्रहण किया जाये वह दत्ति कहलाता है।
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