Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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340 / प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
में प्रायश्चित्त विधि-विधान सम्बन्धी निम्न रचनाएँ प्राप्त होती हैं। उनका उपलब्ध वर्णन इस प्रकार है -
प्रायश्चित्ततपविधि - इसकी कोई जानकारी नहीं मिली है।
प्रायश्चित्त चूलिका यह ग्रन्थ संस्कृत में है और सटीक है। मूल ग्रन्थ की श्लोक संख्या १६६ है। इसकी एक मूल प्रति के आधार से मालूम होता है कि मूलग्रन्थ के कर्त्ता श्री गुरुदास है और वृत्ति के कर्त्ता श्री नन्दिगुरु है ।
प्रस्तुत कृति की भूमिका में यह लिखा गया है कि मूलकर्त्ता का नाम बिल्कुल अपरिचित और विलक्षण है अतः उन्हें इस नाम के होने में सन्देह है। यदि ग्रन्थकर्त्ता का नाम गुरुदास ही है, तो भी हमे उनके विषय में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है। इसमें उल्लेख हैं कि राजा भोज के समय में श्रीचन्द्र नाम के एक विद्वान हुये थे, उनका 'पुराणसार' नामक एक ग्रन्थ है। वह वि. सं. १०७० का बना हुआ है। उसकी प्रशस्ति में उन्होंने लिखा है कि सागरसेन नामक आचार्य से महापुराण पढ़कर श्री नन्दि के शिष्य श्रीचन्द्र मुनि ने यह ग्रन्थ बनाया है । इसी तरह आचार्य वसुनन्दि ने अपने श्रावकाचार में भी एक श्री नन्दि का उल्लेख किया है जो उनकी गुरु परम्परा में थे- श्री नन्दि, नयनन्दि, नेमिचन्द्र और वसुनन्दि । वसुनन्दि का समय बारहवीं शताब्दी है, अतः उनके दादागुरु के गुरु अवश्य ही उनसे १०० वर्ष पहले हुए होंगे और इस तरह संभवतः श्रीचन्द्र के गुरु और वसुनन्दि के परदादा गुरु एक ही होंगे। उक्त वर्णन के आधार पर यदि प्रायश्चित्त टीका के कर्त्ता श्री नन्दिगुरु और श्रीचन्द्र के गुरु श्री नन्दि' एक ही हैं, तो कहना होगा कि यह टीका विक्रम की ११ वीं शती में रची गई है और ऐसी में मूलग्रन्थ उससे भी पहले का बना हुआ होना चाहिए।
दशा
इस ग्रन्थ में साधु और उपासक दोनों से सम्बन्धित प्रायश्चित्त कहे गये हैं। ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण एवं प्रयोजनरूप तीन श्लोक दिये गये हैं । प्रस्तुत कृति में भी पाँच महाव्रत, छठा रात्रिभोजनविरमणव्रत, पाँच समिति, आवश्यकशुद्धि, प्रतिक्रमण इत्यादि में लगने वाले दोषों के प्रायश्चित्त निरूपित किये गये हैं।
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यह कृति नाथुरामप्रेमी, माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला, हीराबाग, मुंबई नं. ४, वि.सं. १६७८ की प्रकाशित है। बाबा दुलीचन्दजी की सूची में श्रीनन्दि मुनि के एक ' यतिसार' नामक सटीक ग्रन्थ का उल्लेख है। उसमें यह लिखा है कि यह ग्रन्थ जयपुर में मौजूद है।
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जैनहितैषी भा. १४ पृ. ११८ - १६ में बाबू जुगलकिशोरजी ने इस विषय पर एक विस्तृत नोट दिया है।
३ यह कृति ‘प्रायश्चित्तसंग्रह' नामक पुस्तिका में संकलित है।
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