Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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346/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
विधि-विधान विस्तृत रूप से कहे गये हैं।
प्रारम्भ में तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है। उसके बाद ज्ञान के विविध भेदों का निर्देश किया गया है। चार प्रकार के मंगल बताये गये है मंगल का निक्षेप पद्धति से व्याख्यान किया गया है और ज्ञान के भेदों की चर्चा की गई है। तदनन्तर नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, वचन और भाव इन सात भेदों से अनुयोग का निक्षेप कहा गया है। निरूक्त का अर्थ निश्चित-उक्त किया है। सूत्र एवं अर्थ दो प्रकार के निरूक्त कहे गये हैं। अनुयोग का अर्थ बताकर 'कल्प' के चार अनुयोग द्वार कहे हैं आगे कल्प और व्यवहार सूत्र का श्रवण करने वाला जीव बहुश्रुत, चिरप्रव्रजित, अचंचल, मेधावी, विद्वान, प्राप्तानुज्ञात और भावपरिणामक होता है, ऐसा उल्लेख किया गया है।' तत्पश्चात् प्रथम अध्ययनादि में प्रलम्ब, ग्रहण, ग्राम, नगरादि सोलहपद आर्य, जाति, कुल आदि कई शब्दों के भेदादि कहे गये हैं और इनका निक्षेप-पद्धति से व्याख्यान किया गया है। बृहत्कल्प-लघुभाष्य
बृहत्कल्प-लघुभाष्य के प्रणेता संघदासगणि क्षमाश्रमण है। इसमें बृहत्कल्प सूत्र के पदों का सुविस्तृत विवेचन किया गया है। लघुभाष्य होते हुए भी इसकी गाथा संख्या ६४६० है। यह छ: उद्देशकों में विभक्त है। इसके अतिरिक्त भाष्य के प्रारम्भ में एक विस्तृत पीठिका भी है जो ८०५ पद्यों में है। इस भाष्य में साधु-साध्वी के आचार मर्यादा सम्बन्धी विधि-निषेध का एवं तत्त्सम्बन्धी विधि-विधानों का व्यापक निरूपण हुआ है इसके साथ ही भारत की कुछ महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक सामग्री का भी उल्लेख दृष्टिगत होता है।
हम इस भाष्य के प्रारम्भ में वर्णित पीठिका, अनुयोग, मंगल, कल्प, कल्पिकद्वार आदि की चर्चा न करते हुए अध्ययनादि के अन्तर्गत जो भी अतिरिक्त विधि-विधान चर्चित हुये हैं उनका नाम निर्देश कर रहे हैं प्रस्तुत भाष्य की पीठिका के अन्त में 'छेदसूत्रों के अर्थश्रवण विधि' का संकेत मिलता है -
प्रथम उद्देशक - इस उद्देशक में निम्न विधियों का सूचन मिलता है - प्रलम्ब ग्रहण की विधि एवं दोष, निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के देशान्तर गमन के कारण
और उसकी विधि, रुग्णावस्था सम्बन्धी विधि-विधान, दुष्काल आदि में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के लिए एक-दूसरे के अवगृहीत क्षेत्र में रहने की विधि, तत्सम्बन्धी १४४ भंग और तद्विषयक प्रायश्चित्तविधि, जिनकल्पिक को दीक्षा की दृष्टि से धर्मोपदेश की विधि, समवसरण की रचना विधि, जिनकल्प ग्रहण करने
'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा. ३, पृ. ११३
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