Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 363
भी १० ग्रंथों पर लिखे गए, ऐसा उल्लेख मिलता है। वे ग्रन्थ ये हैं १. आवश्यक, २. दशवैकालिक, ३. उत्तराध्ययन, ४. बृहत्कल्प, ५. पंचकल्प, ६. व्यवहार, ७. निशीथ, ८. जीतकल्प, ६. ओघनिर्युक्ति और १०. पिंडनियुक्ति ।
मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार व्यवहार और निशीथ पर बृहद्भाष्य भी लिखा गया था, जो आज अनुपलब्ध है। इनमें बृहत्कल्प, व्यवहार एवं निशीथ इन तीनों ग्रन्थों के भाष्य गाथा - परिमाण में बृहद् हैं। जीतकल्प, विशेषावश्यक एवं पंचकल्प परिमाण में मध्यम, पिंडनिर्युक्ति, ओघनिर्युक्ति पर लिखे गए भाष्य ग्रंथाग्र में अल्प तथा दशवैकालिक एवं उत्तराध्ययन इन दो ग्रन्थों के भाष्य ग्रंथाग्र में अल्पतम हैं।
उपर्युक्त दस भाष्यों में निशीथ, जीतकल्प एवं पंचकल्प को संकलन प्रधान भाष्य कहा जा सकता है। क्योंकि इनमें अन्य भाष्यों एवं नियुक्तियों की गाथाएँ ही अधिक संक्रान्त हुई है। जीतकल्पभाष्य में तो जिनभद्रगणि क्षमाश्रम स्पष्ट लिखते है कि- 'कल्प, व्यवहार और निशीथ उदधि के समान विशाल हैं। अतः इन श्रुतरत्नों का नवनीत रूप सार यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है । ' जिन ग्रन्थों पर नियुक्तियाँ नहीं है वे भाष्य मूलसूत्र की व्याख्या ही करते हैं जैसेजीतकल्प भाष्य आदि। कुछ भाष्य नियुक्ति पर ही लिखे गये हैं जैसे ओघनिर्युक्ति भाष्य एवं पिंडनिर्युक्ति भाष्य आदि ।
छेदसूत्रों के भाष्यों में व्यवहार भाष्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह भाष्य दस उद्देशकों में विभक्त है। इसमें कुल ४६६४ पद्य हैं। व्यवहार भाष्य के कर्त्ता के बारे में सभी का मतैक्य नहीं है। प्राचीन काल में लेखक बिना नामोल्लेख के कृ तियाँ लिख देते थे । कालान्तर में यह निर्णय करना कठिन हो जाता था कि वास्तव में मूल लेखक कौन थे? कहीं-कहीं नाम साम्य के कारण भी मूल लेखक का निर्णय करना कठिन होता है।
पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने व्यवहार के भाष्य कर्त्ता सिद्धसेनगणि को माना है। मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार व्यवहार के भाष्यकार संघदासगण है। व्यवहार भाष्य का रचनाकाल भी विवादास्पद है। क्योंकि भाष्यकार संघदासगणि का समय भी विवादास्पद है। पं. दलसुख मालवणिया ने जिनभद्र का समय छठीं -सातवीं शताब्दी सिद्ध किया है अतः भाष्यकार संघदासगणि का समय
9 जीतकल्पभाष्य गा. २६०५
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इस भाष्य का संपादन आचार्य महाप्रज्ञ - समणी कुसुमप्रज्ञा ने किया है। यह वि.सं. २०५३, जैन विश्व भारती, लाडनूं से प्रकाशित है।
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