Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/295
द्रव्यों के प्रति ममत्व बुद्धि का त्याग करें तथा आत्म-धर्म एवं आत्म स्वरूप का चिन्तन कर स्वयं में स्थिर बने।
उसके बाद मूलगुण एवं उत्तरगुण में लगे हुए अतिचारों की आत्म-निन्दा पूर्वक आलोचना करें। तदनन्तर समाधिग्रहण का इच्छुक साधक एकत्व भावना का चिन्तन करें, संयोग सम्बन्धों का परित्याग करें, असंयम आदि की निन्दा और मिथ्यात्व का त्याग करें, अज्ञात अपराध की आलोचना करें। तत्पश्चात् साधक की आलोचना पूर्णतः विशुद्ध बनें, एतदर्थ गुरु उसको माया त्याग का उपदेश दें, आलोचक का स्वरूप बतायें, आलोचना का फल बतायें, आलोचना शल्यरहित करने का माहात्म्य कहें। प्रायश्चित्त ग्रहण की अनिवार्यता प्रगट करें। हिंसा आदि न करने का उसे प्रत्याख्यान करवायें। अशनादि चार प्रकार के आहार का परित्याग करवायें। गृहीत आचार नियम खण्डित न हों, तथा इसका निर्दोष पालन हों वैसा उपदेश दें, प्रत्याख्यान का स्वरूप समझायें। वैराग्य का उपदेश दें। पंडितमरण की प्ररूपणा करें। निर्वेदभाव का व्याख्यान करें। तत्पश्चात् गुरु भगवन्त अनशनव्रतग्राही साधु के लिए पंच महाव्रत की रक्षा स्वरूप उनकी प्ररूपणा करें। गुप्तिसमिति में स्थिर करें। तप का माहात्म्य समझायें। आत्मार्थ साधन की प्ररूपणा करें।
अग्रिम गाथाओं में अकृत-योग और कृत-योग के गुण-दोष की प्ररूपणा करते हुए कहा है कि कोई श्रुत सम्पन्न भले ही हों, किन्तु यदि वह बहिर्मुखी इन्द्रियों वाला, छिन्न चारित्र वाला तथा असंस्कारित हों तो वह मृत्यु के समय अवश्य अधीर हो जाता है। ऐसा व्यक्ति मृत्यु के अवसर पर परीषह सहन करने में असमर्थ होता है, किन्तु जो व्यक्ति विषयसुखों में आसक्त नहीं रहता, भावीफल की आकांक्षा नहीं रखता, तथा जिसके कषाय नष्ट हो गए हों, वह मृत्यु को सामने देखकर भी विचलित नहीं होता है। वस्तुतः यही समाधिमरण की अवस्था है। आगे समाधिमरण का हेतु क्या है? इस विषय में कहा गया है कि न तो तृणों की शय्या ही समाधिमरण का कारण है और न प्रासुक भूमि ही। अपितु जिसका मन विशुद्ध हो, वही समाधिमरण का प्रमुख कारण है। आगे अनशनव्रतधारी साधक के जीवन में क्षणभर के लिए भी प्रमाद का दोष न आ जायें, इसका प्ररूपण किया गया है। इसके साथ ही संवर का माहत्म्य तथा ज्ञान का प्राधान्य कहा गया है। आगे जिनधर्म के प्रति श्रद्धा रखने का कथन किया गया है आगे की गाथाओं में विविध प्रकार के त्याग का उल्लेख करते हुए साधक को इंगित करके कहा गया हैं कि जो मन से चिन्तन करने योग्य नहीं है, वचन से कहने योग्य नहीं है, तथा शरीर जो करने योग्य नहीं है उन सभी निषिद्ध कर्मों का त्रिविध रूप से त्याग करें।
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