Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/317
हैं।' सबसे उत्तरवर्ती वर्गीकरण में आगम के चार विभाग मिलते हैं- अंग, उपांग, मूल एवं छेद। वर्तमान में आगमों का यही वर्गीकरण अधिक प्रसिद्ध है। छेदसूत्र - प्रस्तुत आगम का नाम छेदसूत्रों में आता है। दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ, महानिशीथ और पंचकल्प अथवा जीतकल्प ये छह छेदसूत्र के नाम से प्रसिद्ध हैं इन छेदसूत्र विषयक विधि-विधान सम्बन्धी जानकारी प्रस्तुत करने के पूर्व 'छेद' के सम्बन्ध में सामान्य आलेखन करना अपेक्षित है।
सम्भवतः छेद नामक प्रायश्चित्त को दृष्टि में रख कर इन सूत्रों को छेद सूत्र कहा जाता है। वर्तमान में उपलब्ध छ: छेदसूत्रों में छेद के अतिरिक्त अन्य अनेक प्रकार के प्रायश्चित्तों एवं विषयों का भी वर्णन दृष्टिगोचर होता है जिसे ध्यान में रखते हुए यह कहना कठिन है कि छेदसूत्र शब्द का सम्बन्ध छेद नामक प्रायश्चित्त से है अथवा और किसी से। हाँ ! इतना अवश्य है कि जैनधर्म आचार शुद्धि पर अधिक बल देता है। आचार के नियमों के पालन में उन्होंने इतना अधिक बल दिया है कि स्वप्न में भी यदि हिंसा या असत्यभाषण हो जाए तो उसका भी प्रायश्चित्त करना चाहिए।
अंग आगमों में प्रकीर्ण रूप से साध्वाचार का वर्णन मिलता है कालान्तर में साध्वाचार के विधि-निषेध परक ग्रन्थों की स्वतंत्र अपेक्षा महसूस की जाने लगी। द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के अनुसार आचार सम्बन्धी नियमों में भी परिवर्तन आने लगा। परिस्थिति के अनुसार कुछ वैकल्पिक नियम भी बनाए गए, जिन्हें अपवाद मार्ग कहा गया। इन छेदसूत्रों में साधु की विविध सामान्य आचार-संहिताओं के साथ-साथ अपवाद मार्ग आदि का भी विधान किया गया है। ये सूत्र साधु जीवन का संविधान ही प्रस्तुत नहीं करते, किन्तु प्रमादवश स्खलना होने पर दंड का भी विधान करते हैं। इन्हें लौकिक भाषा में दंड-संहिता तथा अध्यात्म की भाषा में प्रायश्चित्तविधान सूत्र कहा जा सकता है। इन सूत्रों में मूलतः प्रायश्चित्तविधि का वर्णन है। प्रायश्चित्त से चारित्र की विशुद्धि होती है। छेदसूत्रों के ज्ञाता श्रुतव्यवहारी कहलाते हैं और उनको ही आलोचना देने का अधिकार है। छेदसूत्र रहस्य सूत्र है। योनिप्राभृत आदि ग्रन्थों की भाँति इनकी गोपनीयता का भी निर्देश है। इनकी वाचना हर एक को नहीं दी जा सकती है। इनकी वाचना के सम्बन्ध में जो शास्त्रोक्त उल्लेख प्राप्त हैं उसके लिए निशीथभाष्य' निर्शीथचूर्णि, पंचकल्पभाष्य' आदि द्रष्टव्य है।
' नंदीसूत्र ७७-७८ २ निशीथभाष्य ५६४७, चू. पृ. १६० ५ णाऊणं छेदसुत्तं, परिणामगे होति दायब्वं, पंचकल्पभाष्य १२२३
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