Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 315
यहाँ उल्लेखनीय है कि पापशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का विधान अनिवार्यतः आवश्यक माना गया है किन्तु प्रायश्चित्त देने का अधिकार हर किन्हीं श्रमणों को नहीं होता है और जिन श्रमणों के लिए प्रायश्चित्त दान का अधिकार कहा गया है वे संविग्न गीतार्थ मुनि भी पाँच प्रकार के होते हैं १. आगम व्यवहारी, २. श्रुत व्यवहारी, ३. आज्ञा व्यवहारी, ४. धारणा व्यवहारी और ५. जीत व्यवहारी । इन पाँच व्यवहारों में से अन्तिम जीतव्यवहार को प्रस्तुत करने वाला अथवा जीत प्रायश्चित्त को बताने वाला 'जीतकल्पसूत्र' नाम का ग्रन्थ है। इस जीतकल्पसूत्र के आधार पर अनेक जीतकल्प और उनके उपविभागरूप भी जीतकल्प नामक ग्रन्थ निर्मित हुए हैं। इनमें से तीन प्रकार के जीतकल्प देखने को मिलते हैं १. यतिजीतकल्प, २. श्राद्धजीतकल्प, और ३. लघुश्राद्धजीतकल्प |
इस विवरण से निश्चित होता है कि यह यतिजीतकल्प, जीतकल्पसूत्र के आधार पर ही रचा गया है। दूसरी बात यह है कि यतिजीतकल्प के प्रारम्भ की चौबीस गाथाएँ जिनभद्रगणिकृत जीतकल्प में से ली गई हैं। इस कृति की रचना के विषय में कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है, किन्तु इस ग्रन्थ की वृत्ति के आधार पर इतना सिद्ध हो जाता है, कि यह कृति १४ वीं शती से पूर्व की है। यह ऊपर में कह चुके हैं कि यह ग्रन्थ प्रायश्चित्त विधान का प्रतिपादक ग्रन्थ है और वह भी मुनि आचार से ही सम्बद्ध है। यह प्रायश्चित्त अधिकार भी जीतकल्प एवं व्यवहार सूत्र के अनुसार ही निर्दिष्ट है। यह बात प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रथम गाथा से भी स्पष्ट होती है।
इस कृति के प्रारम्भ में मंगलाचारण रूप एवं प्रयोजन रूप एक गाथा कही गई है उसमें श्रुतज्ञान को प्रणाम करके, आत्मा का विशेष शोधन करने के लिए, जीतव्यवहारसूत्र के अनुसार संक्षेप में प्रायश्चित्त दान कहने की प्रतिज्ञा की गई है । उपसंहार रूप अन्तिम गाथा में यह कहा गया हैं कि इस ग्रन्थ में जीत - निशीथादि सूत्र के अनुसार स्व और पर के लिए यतिओं के प्रायश्चित्त क गये हैं। उनमें कोई भी त्रुटि हो तो गीतार्थजन उसका शोधन करें। यतिजीतकल्प में उल्लिखित प्रायश्चित्त आदि विधि-विधानों का विषयानुक्रम इस प्रकार है - १. दर्पिका प्रतिसेवना सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधान २. कल्पिका प्रतिसेवना सम्बन्धी चार प्रकार के प्रायश्चित्त विधान ३. प्रायश्चित्त के भेद । ४. आलोचना सम्बन्धी प्रायश्चित विधान ५. प्रतिक्रमण सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधान ६. विवेकयोग्य और व्युत्सर्गयोग्य प्रायश्चित्त विधान ७. ज्ञानाचारातिचार सम्बन्धित प्रायश्चित्त विधान ८. जिनप्रतिमा आदि की आशातना से सम्बन्धित प्रायश्चित्त विधान ६. प्रथम महाव्रतातिचार सम्बन्धी प्रायश्चित विधान १०. साधुओं के लिए जलमार्ग पर गमन
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