Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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310/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
रचनाकाल विक्रम की छठी-सातवीं शती है। यह प्राकृत पद्य में है। इसमें कुल १०३ गाथाएँ हैं। यह ग्रन्थ अन्य छेदसूत्रों की भाँति ही प्रायश्चित्त के विधि-विधानों से सम्बन्धित है। मूलतः इस ग्रन्थ में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के भिन्न-भिन्न अपराध स्थान विषयक प्रायश्चित्त का विधान जीत व्यवहार' के आधार पर किया गया है।
इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में सर्वप्रथम प्रवचन को नमस्कार किया गया है एवं आत्मा की विशुद्धि के लिए जीत व्यवहारगत प्रायश्चित्त दान का संक्षिप्त निरूपण करने का संकल्प किया है। आगे कहा है कि प्रायश्चित्त तपों में प्रधान है अतः मोक्षमार्ग की दृष्टि से प्रायश्चित्त का अत्यधिक महत्त्व है। मोक्ष के हेतुभूत चारित्र की विशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त अत्यावश्यक है। एतदर्थ मुमुक्षु के लिए प्रायश्चित्त का ज्ञान अनिवार्य है। इसमें प्रायश्चित्त के निम्न दस भेद बताये गये हैं - १. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. तदुभय, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. मूल, ६. अनवस्थाप्य और १०. पारांचिका
___ आगे बताया गया है कि किन-किन अवस्थाओं में कौन-कौन से प्रायश्चित्त दिये जाते हैं तथा किस दोष के लिए कौन से प्रायश्चित्त का विधान है उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है - १. आलोचनायोग्य - आहारादि ग्रहण, बहिर्निगमन, मलोत्सर्ग आदि क्रियाओं में जो दोष लगते हैं उनकी शुद्धि के लिए आलोचना प्रायश्चित्त का विधान बताया है। अर्थात् ये दोष आलोचना करने मात्र से शुद्ध हो जाते हैं। २. प्रतिक्रमणयोग्य - गुप्ति और समिति में प्रमाद करना, गुरु की आशातना करना, विनय भंग करना, गुरु की आज्ञादि का पालन नहीं करना, लघु मृषादि का प्रयोग करना, अविधिपूर्वक खाँसी, जम्भाई, वायुनिस्सरण करना, असंक्लिष्ट कर्म करना, कन्दर्प, हास्य, विकथा, कषाय, विषयानुसंग करना इत्यादि प्रवृत्तियों से, जो दोष लगते हैं, उनकी शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त का विधान कहा है अर्थात् ये दोष प्रतिक्रमण करने मात्र से दूर हो जाते हैं। ३. तदुभययोग्य - संभ्रम, भय, आपत, सहसा, अनाभोग, अनात्मवश अर्थात निद्रादि अवस्थाओं में दुश्चिन्तन, दुःभाषण, दुश्चेष्टा आदि अनेक प्रवृत्तियों से
' जो व्यवहार परम्परा से प्राप्त हो एवं श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा अनुमत हो वह जीत व्यवहार कहलाता है
जीतकल्पभाष्य गा. ६७५ २ जीतकल्पूसत्र - २ ३ वही. ५-८ ४ वही. ६-१२
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