Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 291
आत्मशुद्धि के लिए सम्यक् आलोचना करता है, गणि (आचार्य) आलोचना सुनने के बाद उसे प्रायश्चित्त देते हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय हैं कि चाहे वह आराधक महाव्रतों का अखण्ड पालन करने वाला मुनि रहा हो, फिर भी उसे इन महाव्रतों का यावज्जीवन पालन करते रहने की पुनः प्रतिज्ञा करनी होती है। यदि आराधक देशविरत हो तो वह भी यावज्जीवन इन व्रतों के पालन की प्रतिज्ञा करता है। तदनन्तर निदान रहित हो वह अपने द्रव्य को धर्मकार्यों के निमित्त व्यय करता है ।
सर्वविरति आराधक संस्तारक प्रव्रज्या प्राप्त कर निखद्य सामायिकचारित्र ग्रहण करता है फिर वह गुरु के चरणों में यह निवेदन करता है कि 'हे भगवन्! आपकी अनुमति से मैं भक्तपरिज्ञा ग्रहण करता हूँ'। इसके पश्चात् वह सर्वदोषों की आलोचना करता है, भव के अन्त तक त्रिविध आहार का प्रत्याख्यान करता है। यही भक्तपरिज्ञा नामक अनशनव्रत ग्रहण करने की संक्षिप्त विधि है । तदनन्तर आराधक की भोज्य द्रव्यों में आसक्ति हैं या नहीं इसकी परीक्षा का उल्लेख है।
आगे की गाथाओं में भक्तपरिज्ञा अनशनव्रत के विषय में यह भी कहा गया हैं कि भक्तपरिज्ञा अनशन को ग्रहण करने के समय संघ की अनुमति से क्षपक को चतुर्विध या त्रिविध आहार का प्रत्याख्यान करवाया जाता है। फिर कालक्रम में वह पानक आहार का भी त्याग कर देता है। इसके पश्चात् वह विधिपूर्वक सर्वसंघ, आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक, कुल और गण से क्षमापना करता है। इसके पश्चात् गणि द्वारा आराधक को विस्तृत उपदेश देने का विवरण है। तत्पश्चात् नमस्कार का माहात्म्य बताते हुए कहा है कि मरण काल में यदि एक भी तीर्थंकर को भावपूर्वक नमस्कार किया गया हो तो वह संसार चक्र के उच्छेदन में समर्थ बन जाता है। इसी अनुक्रम में उदाहरणों एवं रूपकों से नमस्कारमंत्र के स्मरण का फल बताया गया है इसके पश्चात् इसमें विविध दृष्टान्तों एवं उपमाओं के द्वारा आराधक को तीन करण, तीन योग, षट्निकाय जीवों की हिंसा का त्याग करने, सर्वप्रकार के असत्य वचनों का त्याग करने, अल्प हो या अधिक परद्रव्य हरण का त्याग करने, ब्रह्मचर्य की रक्षा करने तथा आसक्ति एवं परिग्रह त्याग करने का उपदेश दिया गया है। इसके पश्चात् इस ग्रन्थ में इन्द्रिय-विषयों से विमुख रहने का उपदेश एवं इन्द्रियासक्त व्यक्तियों की दुर्दशा के दृष्टान्तों को भी निरूपित किया गया है। इन उपदेशों से आह्लादित चित्त वाला होकर वह आराधक विनयपूर्वक निवेदन करता है कि मैं आपके कहे अनुसार आचरण करूँगा।
तत्पश्चात् अवन्तिसुकुमाल, सुकोशलमुनि, चाणक्य आदि उदाहरणों के
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