Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 209
बताई गई है । उपधान तप में प्रवेश करने वाले साधकों को कब कौन सी क्रिया आदि करनी चाहिए इसका भी निर्देश किया गया है। इसके साथ ही उपधान तप में किन कारणों और किन दोषों से वह दिन निरस्त माना जाता है, किन कारणों से आलोचना आती है, आदि की चर्चा है। उपधान क्रिया के सम्बन्ध में सामान्य जानकारी और अनेक सूचनाएँ भी दी गई हैं।
तदनन्तर उपधान विषयक विधि-विधानों का निरूपण किया गया है। उनके नाम निर्देश इस प्रकार हैं- १. उपधान में प्रवेश करने की विधि २. प्रातः कालीन गमनागमन की आलोचना विधि ३. १०० लोगस्ससूत्र के कायोत्सर्ग की विधि ४. पौषध ग्रहण विधि ५. सामायिक ग्रहण विधि ६. 'बहुवेलं' आदेश लेने की विधि ७. प्रतिलेखना विधि ८. पवेयणा (प्रवेदन ) विधि ६. स्वाध्याय विधि १०. रात्रिक मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन विधि ११. देववंदन विधि १२. पौरिसी पढ़ने की विधि १३. नमस्कारमंत्र गिनने की विधि १४. प्रत्याख्यान पारने की विधि १५. सन्ध्याकालीन क्रिया विधि १६. चौबीस मांडला विधि १७. श्राविकाओं के लिए विशेष विधि १८. संथारा पौरुषी पढ़ने की विधि १६. माला पहनने की विधि
स्पष्टतः यह कृति आकार में लघु है किन्तु उपधानविधि का सर्वांग विवेचन प्रस्तुत करती है।
उपधानप्रकरण
इसके रचयिता मानदेवसूरि है। यह प्रकरण अति प्रचलित है। विधिमार्गप्रपा, आचारदिनकर, नमस्कारस्वाध्याय आदि ग्रन्थों में इसको उद्धृत किया गया है । इस प्रकरण में सात प्रकार के उपधान का सविधि प्रतिपादन हुआ है। यह प्राकृत पद्य में है । '
जैन संस्कार रीति रिवाज एवं जैन विवाह विधि
यह पुस्तक एम. पी. जैन द्वारा संकलित की गई है। यद्यपि रचना सामग्री एवं आकार की दृष्टि से लघु है, तथापि गृहस्थ आश्रम में रहने वाले साधकों की दृष्टि से परम उपयोगी है। इसमें जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त जितने विधि-विधान एवं संस्कार सम्पन्न किये जाते हैं वे सभी जैन पद्धति के आधार पर प्रस्तुत किये गये हैं। पुस्तक की विषयवस्तु पढ़ने से ज्ञात होता है कि इसमें उल्लिखित विधि-विधान जैन परम्परा के सभी अनुयायियों के लिए सर्व सामान्य है। वस्तुतः गृहस्थ साधकों के लिए स्वपरम्परा का पालन करने हेतु इसमें प्रतिपादित प्रत्येक विधान पढ़ने योग्य, जानने योग्य और सम्पन्न करने योग्य हैं।
' जिनरत्नकोश पृ. ५४
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