Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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2248 / संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
इसमें आचार्य को अपने समुदाय के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये और किस तरह गच्छ की प्रतिपालना करनी चाहिये उसका बड़ा मार्मिक उपदेश दिया गया है। आचार्य को अपने चारित्र में सदैव सावधान रहना चाहिए और अपने अनुवर्त्तियों की चारित्र रक्षा का भी पूरा ख्याल रखना चाहिए | सबको समदृष्टि से देखना चाहिये। उन्हें अपने और दूसरे लोगों के बीच किसी प्रकार का विरोधाभाव पैदा हो, ऐसा वचन कदापि नहीं बोलना चाहिये। स्वयं को कषायों से मुक्त होने के लिए सतत् प्रयत्नवान रहना चाहिए - इत्यादि शिक्षावचन कहे गये हैं।
पच्चीसवाँ - प्रवर्त्तिनीपदस्थापनाविधि द्वार, छब्बीसवाँ- महतरापदस्थापनविधि द्वार
इन दो द्वारों में प्रवर्त्तिनीपदस्थापना और महात्तरापदस्थापना विधि का निरूपण किया गया है इसके साथ ही आचार्यपदस्थापना के समान महत्तरापद और प्रवर्त्तिनीपद प्राप्त करने वाली साध्वी के लिए भी शिक्षा पूर्ण वचन कहे गये हैं । प्रवर्त्तिनी को अनुशिष्टि देते हुए आचार्य कहते हैं कि तुमने जो यह पद ग्रहण किया है इसकी सार्थकता तभी होगी जब तुम अपनी शिष्याओं को और अनुगामिनी साध्वियों को ज्ञानादि सद्गुणों में प्रवर्त्तित कर उनके कल्याण-पथ की मार्गदर्शिका बनोगी। तुम्हें न केवल उन्हीं साध्वियों के लिए हितकारी प्रवृत्ति करनी है जो विदुषि हैं, उच्च कुलीन हैं जिनका बहुत बड़ा स्वजन वर्ग है, या जो सेठ, साहूकार आदि धनिकों की पुत्रियाँ हैं, अपितु तुम्हें उन साध्वियों के लिए भी उसी प्रकार की हितकारी प्रकृति करनी हैं जो दीन और दुःस्थित दशा में हो, अज्ञानी हो, शक्तिहीन हो, शरीर से विकल हो, निःसहाय हो, बन्धुवर्ग रहित हो, वुद्धावस्था से जर्जरित हो और संयोगवश विकट परिस्थिति में पड़ जाने के कारण संयम से पतित हो गई हो। इन सबकी तुम्हें गुरु की तरह, प्रतिचारिका की तरह, धाय माता की तरह, प्रियसखी की तरह भगिनी - जननी मातामही एवं पितामही की तरह वात्सल्यपूर्वक प्रतिपालना करनी चाहिये ।
सत्ताईसवाँ - गणानुज्ञापदस्थापनाविधि द्वार इस द्वार में अनुशिष्टपूर्वक गणानुज्ञाविधि कही गई है। गणानुज्ञा का यह विधान मुख्याचार्य का कालधर्म होने पर अथवा उनके द्वारा किसी तरह से असमर्थ हो जाने पर योग्य शिष्य को गण संचालन के लिए प्रदान किया जाता है। इस विधि में प्रायः वैसी ही प्रक्रिया और उपदेशादि गर्भित हैं जैसा आचार्यपदस्थापना विधि में निर्दिष्ट किया गया है। इसमें उल्लेख है कि जिस मुनि को गुणानुज्ञा का अधिकार दिया जाता है वह नवीन आचार्य सम्पूर्ण गच्छ का अधिनायक बनता है और उसी की आज्ञा में सारा संघ विचरण करता है।
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