Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/251
यहाँ ग्रन्थ की विषय वस्तु के परिचय से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रन्थ कितना महत्त्वपूर्ण और अलभ्यसामग्री से परिपूर्ण है। स्पष्टतः यह ग्रन्थ विधि-विधानों का विशिष्ट भण्डार है। जिनप्रभसूरि ने इस ग्रन्थ की रचना न केवल स्वमति से की है और न ही सामान्य ग्रन्थों के आधार पर की है, अपितु आगमोक्त परम्परा का अनुसरण करते हुए पूर्वाचार्य प्रणीत सर्वसामान्य ग्रन्थों, गुरु परम्परा से प्राप्त ज्ञान एवं स्वगच्छ की सामाचारी के आधार पर की है। विधिमार्गप्रपा का अध्ययन करने के बाद यह भी स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने दीर्घ काल की पर्याय में अनेक प्रकार के विधि-विधान स्वयं अनुष्ठित किये हैं
और अनेकों साधु-साध्वी, श्रावक श्राविकाओं को अनुष्ठित करवाये हैं इसी वजह से उनका यह ग्रन्थ स्वयं के द्वारा अनुभूत किया गया, शास्त्र प्रमाणित और संप्रदायगत परंपरा से युक्त है।
प्रस्तुत ग्रन्थ को सर्वमान्य, सर्वसुलभ, प्रामाणिक और अनुकरणीय बनाने के लिए उन्होंने स्थल-स्थल पर कई पूवाचार्यों की मान्यताओं और परम्पराओं को उल्लिखित किया है। इतना ही नहीं, प्रसंगवश कुछ तो पूरे के पूरे पूर्वरचित प्रकरण ही उद्धृत कर दिये हैं। उदाहरणार्थ- उपधान विधि में- मानदेवसूरिकृत 'उवहाणविही' नामक प्रकरण, जिसकी ५४ गाथाएँ हैं उद्धृत किया गया है। उपधान- प्रतिष्ठाप्रकरण में- किसी पूर्वाचार्य द्वारा निर्मित 'उवहाणपइट्ठा पंचासय' नामक प्रकरण अवतरित किया गया है, जिसकी ५१ गाथाएँ हैं। पौषधविधिप्रकरण में- जिनवल्लभसूरिकृत विस्तृत 'पोसहविहिपयरण' का १५ गाथाओं में पूरा सार दे दिया है। नन्दिरचनाविधि में ३६ गाथा का 'अरिहाणादि थुत्त' उद्धृत किया गया है। योग विधि में- उत्तराध्ययनसूत्र का 'असंखय' नामक १३ पद्यों वाला चौथा अध्ययन उद्धृत किया है। प्रतिष्ठा विधि में- चन्द्रसूरिकृत 'प्रतिष्ठासंग्रहकाव्य' तथा 'कथारत्नकोश' नामक ग्रन्थ में से पचास गाथावाला 'ध्वजारोपणविधि' नामक प्रकरण उद्धृत किया गया है। ग्रन्थ के अन्त में जो 'अंगविद्यासिद्धिविधि' नामक प्रकरण है वह सैद्धान्तिक विनयचन्द्रसूरि के उपदेश से लिखा गया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि इस ग्रन्थ में जो विधि-विधान प्रतिपादित किये गये हैं वे पूर्वाचार्यों के संप्रदायानुसार ही लिखे गये हैं। प्रसंगवश यहाँ यह कहना उचित होगा कि जिन्हें जैन संप्रदायगत गण-गच्छादि के भेद-प्रभेदों के इतिहास का अच्छा ज्ञान हैं वे भलीभांति जानते हैं कि जैनमत में जो भी गच्छ
और संप्रदाय उत्पन्न हुए हैं और उनमें परस्पर जो विरोधाभास व्याप्त हैं उसका मुख्य कारण उनके विधि-विधानों की प्रक्रिया में मतभेद का होना है। केवल सैद्धान्तिक या तात्त्विक मतभेद के कारण वैसा बहुत ही कम हुआ है।
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