Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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272/समाधिमरण सम्बन्धी साहित्य
इस प्रकार हम पाते हैं कि इस प्रकीर्णक में अनशनविधि का सुन्दर स्वरूप प्रस्तुत हुआ है। आतुरप्रत्याख्यान (द्वितीय)
इस प्रकीर्णक' में कुल ३४ गाथाएँ हैं। यह प्रकीर्णक भी अनशन ग्रहण करने की विधि से सम्बन्धित है। इस प्रकीर्णक में अनशन विधि निम्न शीर्षकों के आधार पर प्रस्तुत की गई है, वे बिन्दू ये हैं - उपोद्घात, अविरति-प्रत्याख्यान, मिथ्यादुष्कृत, ममत्व-त्याग, शरीर के लिए उपालम्भ, शुभ भावना, अरिहंतादि का स्मरण, पापस्थानक त्याग आदि।
प्रस्तुत कृति की प्रथम गाथा में कुश-शय्या पर भावपूर्वक बैठे हुए एवं झुके हुए हाथों सहित रोगों (संसर्ग त्याग) के प्रत्याख्यान की चर्चा है। अविरति प्रत्याख्यान के सन्दर्भ में समस्त प्राणहिंसा, असत्यवचन, अदत्तादान, रात्रिभोजन-अविरति, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से विरत होने का तथा स्वजन, परिजन, पुत्र-स्त्री, आत्मीयजनों के प्रति सब प्रकार की ममता त्याग करने का निर्देश दिया गया है। मिथ्यादुष्कृत के प्रसंग में नैरयिक, तिर्यच, देव ओर मनुष्य के साथ जो भी पाप हुये हों, सबके प्रति मिथ्यादुष्कृत करने का निर्देश है। ममत्व त्याग के प्रसंग में मरकतमणि के समान कान्तिवाले, शाश्वत श्रेष्ठ भवनों को छोड़कर जीर्ण चटाई से बने घरों में आसक्त न होने का निरूपण है। इसके साथ ही आराधक के लिए यह उपदेश दिया गया है कि अब तुमने स्वर्णमय-पुष्प पराग के समान सुकुमाल शरीर का त्याग कर दिया है लेकिन जीर्ण शरीर में भी आसक्त नहीं बनना है तथा पित्त, शुक्र और रुधिर से अपवित्र, दुर्गन्ध युक्त शरीर पर भी आसक्त नहीं बनना है। गाथा १४ से १८ में सुकृत कार्य न करने के लिए शरीर को उपालम्भ दिया गया है। तदनन्तर शुभ भावना के प्रसंग में यह कहा गया हैं कि इस संसार में दुःख जितना सुलभ है सद्धर्म की प्राप्ति उतनी ही दुर्लभ है। साथ ही इसमें मरण समय समीप आने पर अरिहंतादि का स्मरण करना चहिए ऐसा कहा गया है। अन्त में गाथा २६ से ३४ में पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है, फिर अठारह पापस्थानों के त्याग का निर्देश दिया गया है। और सभी पापों का मिच्छामि दुक्कडं देने को कहा गया है।
स्पष्टतः इस प्रकीर्णक में समाधिमरण (संथारा ग्रहण) स्वीकार की विधि अति संक्षेप में चर्चित है परन्तु समाधिमरण के लिए मन को शान्त एवं विरक्त कैसे बनाये रखें, एतदर्थ तत्सम्बन्धी उपदेश का विस्तृत विवेचन किया गया है।
' आउरपच्चक्खाणं पइण्णय, पइण्णयसुत्ताई भा. १, पृ. ३०५-३०८
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