Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
View full book text
________________
288/समाधिमरण सम्बन्धी साहित्य
चैत्यवन्दन करने का निर्देश है साथ ही श्रावक के सन्दर्भ में अनशन ग्रहण करने की विधि का विस्तार से निरूपण किया गया है। पन्द्रहवें 'आलोचना' द्वार में संलेखनाग्राही को संविग्न गीतार्थ गुरु के समक्ष ही आलोचना करनी चाहिए क्योंकि अगीतार्थ के समक्ष आलोचना करने से अनेक दोष होते हैं इसका प्रतिपादन किया गया है। इसके साथ ही ज्ञानातिचार, दर्शनातिचार, चारित्रातिचार, तपविचार, वीर्यातिचार आलोचना एवं श्रावकाश्रित आलोचना के विषयों का विस्तृत निरूपण किया गया है।
सोलहवें 'व्रतोच्चार' द्वार में गुरु के समीप में आराधक मुनि द्वारा पंचमहाव्रत का आरोपण एवं श्रावक द्वारा पंच अणुव्रत का ग्रहण करने का निर्देश है। सत्रहवें 'चतुःशरण' द्वार में आराधक द्वारा अरिहंतादि चार उत्तम आत्माओं की शरण ग्रहण करने का प्ररूपण है। अठारहवें 'दुष्कृतगर्हा' द्वार में आराधक द्वारा लोक परलोक में किये गये विविध हिंसात्मक कार्यों की निन्दा करने का विस्तृत वर्णन किया गया है। उन्नीसवें 'सुकृत अनुमोदना' द्वार में संलेखनाधारी आराधक द्वारा इहलोक परलोक में किये गये सद्कार्यों की अनुमोदना करने का विस्तृत प्रतिपादन है। सुकृत कार्यों में जिनभक्ति, चारित्रपालन, सामाचारी पालन, धर्मोपदेश, शास्त्र-अवगाहन शिष्य निष्पत्ति, आचार्य पदादि स्थापन, विविध तपानुष्ठान उन्मार्ग निवारण आदि मुनिकृत अनुमोदना के विषय है। इसके अतिरिक्त अन्य भी स्वकृत-कारित एवं अनुमोदित सुकृत कार्यों का उल्लेख किया गया है। बीसवें 'जीवक्षमणा' द्वार में संलेखनाधारी मुनि द्वारा चारों गतियों के जीवों के प्रति किये गये अपराधों के लिए क्षमायाचना करने का निरूपण है। इक्कीसवें 'स्वजनक्षमणा' द्वार में आत्मीयजनों जैसे माता-पिता, मित्र, भगिनी, पुत्री, भार्या, आदि बन्धु-बान्धव के सम्बन्ध में इस जीवन में और पूर्व जीवन में किये गये अपराधों की आराधक द्वारा की गई क्षमापना का विस्तार से वर्णन है।
बावीसवें 'संघक्षमणा' द्वार में साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, रूप चतुर्विध संघ के प्रति किये गये अपराधों की क्षपक कृत क्षमापना का वर्णन है। इसमें . प्रसंगवश संघ का स्वरूप, संघ के बहुमान से मोक्ष पर्यन्त विविध सुखों की प्राप्ति का निरूपण भी किया गया है। तेवीसवें 'जिनवरादि क्षमणा' द्वार में आराधक द्वारा भरत, ऐरावत, महाविदेह क्षेत्र के तीनों कालों के गणधरों सहित एवं संघ सहित तीर्थंकरों के प्रति किये गये अपराधों की क्षमापना का प्रतिपादन है। चौबीसवें 'आशातना प्रतिक्रमण' द्वार में गुरुसम्बन्धी तैंतीस आशातना एवं उनके दोषों का प्रतिक्रमण, उन्नीस आशातना एवं उनके दोषों का प्रतिक्रमण तथा सूत्रविषयक चौदह आशातना एवं उनके दोषों का प्रतिक्रमण निरूपित है। पच्चीसवें
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org