Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/287
करने से सम्बन्धित बत्तीस द्वारों का निरूपण किया गया है।
ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण और ग्रन्थ रचना का प्रयोजन निर्दिष्ट किया गया है। उसके बाद बत्तीस द्वारों की विषयवस्तु का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार प्रस्तुत है- पहले 'संलेखना' द्वार में संलेखना के कषाय और शरीर ये दो भेद कहे गये हैं पुनः इसके साथ उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य तीन भेद बताये गये हैं। इसके साथ ही संलेखना धारण करने वाले के स्वरूप का वर्णन और गुरू के चरणों में गमन का निरूपण किया गया है। दूसरे ‘परीक्षा' द्वार में संलेखना धारण करने की इच्छा वाले मुनि की गुरु के द्वारा कैसे परीक्षा ली जाये इसको बताया गया है। तीसरे 'निर्यामक' द्वार में निर्यामक का स्वरूप एवं निर्यामक साधुओं के कर्तव्य का निरूपण किया गया है। चौथे 'योग्यता' द्वार में भक्तप्रत्याख्यान ग्रहण करने वाले आराधक की योग्यता का सूचन किया गया है। पाँचवे 'गीतार्थ' द्वार में अगीतार्थ के समीप अनशन ग्रहण का निषेध तथा उसके समीप में अनशन करने से होने वाले दोषों का निरूपण किया गया है। इसके साथ ही 'उत्तमार्थ' (अनशन) की साधना निमित्त गीतार्थ के सान्निध्य में करने से आराधक को होने वाले लाभ का विशद वर्णन किया गया है।
__ छट्टे 'असंविग्न' द्वार में असंविग्न साधु के निकट अनशनग्रहण का निषेध किया गया है और संविग्नमुनि के समीप उत्तमार्थकरण का निर्देश दिया गया है। सातवें 'निर्जरणा' द्वार में स्वाध्याय, कायोत्सर्ग, वैयावृत्य एवं अनशन से होने वाली असंख्य भवों की कर्म-निर्जरा का निरूपण किया गया है। आठवें 'स्थान' द्वार में समाधिमरण ग्रहण करने वाले साधक के लिए धर्मध्यान में बाधक स्थानों का निर्देश दिया गया है। नवमें 'वसति' द्वार में संलेखना धारक योग्य वसति का निरूपण किया गया है। दसवें 'संस्तारक' द्वार में संलेखनाधारी के योग्य संस्तारक के विषय में उत्सर्ग एवं अपवाद का कथन किया गया है। ग्यारहवें 'द्रव्यदान' द्वार में आराधक के अन्तिमकाल में आहर-पान दान के विषय में निरूपण किया गया है। बारहवें 'समाधिपानविवेक' द्वार में आराधक की समाधि के लिए मधुरपान, विरेचन आदि द्रव्यनामों के निर्देशपूर्वक उन द्रव्यों के दान का वर्णन किया गया है। तेरहवें 'गणनिसर्ग' द्वार में संलेखनाधारी के गच्छाचार्य होने पर उसके द्वारा योग्य गणाधिप की स्थापना, स्थापित गणाधिप और गण के प्रति क्षपकाचार्य का हृदयंगम वक्तव्य, क्षपकाचार्य और गण का परस्पर क्षमापन इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। चौदहवें 'चैत्यवन्दन' द्वार में अनशन ग्रहण करने की इच्छा वाले मुनि द्वारा अनशन करने हेतु गुरु से अनुज्ञा का निवेदन करना, चैत्यवन्दन के निर्देश सहित गुरु द्वारा अनुज्ञा प्रदान करना और आराधक द्वारा
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