Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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282 / समाधिमरण सम्बन्धी साहित्य
करना, सभी जीवों से क्षमायाचना करना, अठारह पापस्थानों का त्याग करना, राग-द्वेष और मोह वश तीन करण और तीन योग से इहभव और परभव में जो धर्म विरुद्ध कृत्य किये हों उनकी निन्दा करना, सुकृत की अनुमोदना करना, चतुःशरण को ग्रहण करना, और एकत्व भावना का चिन्तन करना इत्यादि का निर्देश मात्र है।
प्रस्तुत नाम की चार कृतियाँ और प्राप्त होती हैं। हमें इन कृतियों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त नहीं हैं क्योंकि ये हमें देखने को नहीं मिली हैं। तथापि कृति नाम से इतना तो अवश्य स्पष्ट हो जाता हैं कि ये आराधना - विधि से सम्बन्धित है। इन कृतियों का प्राप्त विवरण इस प्रकार है
आराधना कुलक - इस कृति का अपरनाम समाराधना कुलक है। इसके कर्ता के सम्बन्ध में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।
आराधना कुलक - यह कृति जिनेश्वरसूरि के शिष्य अभयदेवसूरि की है।' इसमें प्राकृत की ८५ गाथाएँ हैं ।
आराधना कुलक - इसमें प्राकृत की ६६ गाथाएँ हैं। यह कृति अज्ञातकर्तृक है। आराधना कुलक - इसमें १७ गाथाएँ हैं। यह रचना अज्ञात मुनि की है। आलोचना कुलक - इस प्रकीर्णक में मात्र १२ गाथाएँ हैं। इसमें मुख्य रूप से विविध दृष्कृतों की विधिवत् आलोचना विधि बताई गई है। सर्वप्रथम ज्ञान, दर्शन और चारित्र में लगे हुए अतिचारों की निन्दा, फिर मूलगुण- उत्तरगुण के अतिचारों की निन्दा, पश्चात् राग-द्वेष और चारों कषायों के वशीभूत जो कृत्य किये हैं उनकी निन्दा, दर्प और प्रमाद से जो कृत्य किये हैं उनकी निन्दा, अज्ञान, मिथ्यात्व, विमोह, और कलुषता के कारण जो कृत्य किये हैं उनकी निन्दा, जिन प्रवचन, साधु की आशातना और अविनय किया हो उसकी निन्दा की गई हैं। आगे इन्द्रियों के वशीभूत होकर किये गये कार्यों की आलोचना की गई है तथा अन्तिम गाथा में आलोचना का माहात्म्य बताया गया है।
स्पष्टतः ये प्रकीर्णक दुष्कृत की गर्हा करने सम्बन्धी विधि विधान का सम्यक् निरूपण करते हैं।
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देखें, जिनरत्नकोश पृ. ३२
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आलोयणाकुलयं-पइण्णयसुत्ताई, भा. २, पृ. २४६ - २५०
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