Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/259
योगवाहियों की कल्प्याकल्प्य विधि का निरूपण करता है। उनचालीसवाँ द्वार योगवाहियों की आहार विधि प्रस्तुत करता है। चालीसवें द्वार में योगवाहियों के अपराध स्थान कहे गये हैं। इकतालीसवाँ द्वार संघट्टा रखने की विधि से सम्बद्ध है। बयालीसवाँ द्वार आउत्तवाणय विधि को दर्शाता है। तैयालीसवें द्वार में सभी सूत्रों के योग दिन-काल संख्यादि का निरूपण है। चौवालीसवें द्वार में आचार्यपदस्थापना विधि, पैंतालीसवें द्वार में उपाध्यायपदस्थापना विधि, छयालीसवें द्वार में महत्तरापदस्थापना विधि का प्रतिपादन है। सैंतालीसवाँ द्वार आलोचना विधि कहता है। अडतालीसवें द्वार में साधु की अन्तिम आराधना विधि कही गई है। उनपचासवें द्वार में श्रावक की अन्तिमआराधना विधि का विवरण है। पच्चासवाँ द्वार- मृतक संयत की परिष्ठापना विधि से सम्बन्धित है।
यह कृति अप्रकाशित है। कृति का रचनाकाल हमें ज्ञात नहीं हुआ है। सामाचारीप्रकरण
यह कृति प्राकृत एवं संस्कृत मिश्रित गद्य में गुम्फित है। यह रचना किसी अज्ञात प्राचीन आचार्य द्वारा निर्मित है। इस ग्रन्थ का श्लोक परिमाण ११७६ है। इस ग्रन्थ की प्रारम्भिक तीन गाथाएँ मंगलाचरण एवं विषयस्थापन रूप हैं तथा अन्त की दो गाथाएँ कृति के अध्ययन के फल से सम्बन्धित हैं। इस कृति की आद्य गाथा में भगवान महावीर को वन्दन करके श्रमण और श्रावकों के कल्याणार्थ संविग्न पुरूषों द्वारा आचरित आचार (क्रियानुष्ठान) विधि को कहने की प्रतिज्ञा की गई है। उसके बाद की दो गाथाएँ इस कृति में निरूपित इक्कीस द्वारों के नामोल्लेख से सम्बन्धित हैं। अन्त की गाथाओं में यह कहा गया है जो भव्यात्मा पूर्वोक्त आचार-विधि का सम्यक् परिपालन करता है वह जन्म-मरण की परम्परा का विच्छेद करके शीघ्रमेव सिद्धि स्थान का वरण कर लेता है।
प्रस्तुत कृति के २१ द्वारों का विषयानुक्रम इस प्रकार है - पहला द्वार सम्यक्त्वव्रत की आरोपण विधि से सम्बन्धित है। दूसरा द्वार देशविरतिव्रत की आरोपण विधि की विवेचना करता है। तीसरा द्वार दर्शनादि चार प्रतिमाओं को ग्रहण करने की विधि से युक्त है। चौथा द्वार तप स्वरूप' विधि का विवरण प्रस्तुत करता है। पाँचवां द्वार प्रतिक्रमणादि की विधि का प्रतिपादन करता
' (क) इस विधि में कुल ६६ तपों का विवेचन है, उनमें भी दीर्घावधि वाले कनकावली, रत्नावली, भद्र, महाभद्र, गुणसंवत्सर आदि तपों का सयन्त्र वर्णन किया गया है। (ख) इस तपविधि के प्रारंभ में 'उपधान को महानिशीथ सूत्र से जानना चाहिए' ऐसा उल्लेख
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