Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
View full book text
________________
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/263
के भी उल्लेख मिलते हैं। सम्यक्त्वशास्त्रवृत्ति, प्रत्येकबुद्धचरित्र, चैत्यवन्दना, प्रतिक्रमणसूत्र, आवश्यकनियुक्ति वृत्ति, दशवैकालिकवृत्ति, जीतकल्पवृत्ति इत्यादि। सुबोधासामाचारी
यह कृति जैन महाराष्ट्री प्राकृत भाषा में निबद्ध' है। यह कृति मुख्यतया गद्य में है। इस ग्रन्थ के कर्ता शीलप्रभसूरि के प्रशिष्य धनेश्वरसूरि के शिष्य श्री चन्द्रसूरि हैं। इन चन्द्रसूरि के द्वारा रचित मुनिसुव्रतस्वामिचरित्र का भी उल्लेख उपलब्ध होता है। प्रस्तुत कृति का ग्रन्थ परिमाण १३८६ श्लोक है। इस कृति का रचनाकाल लगभग १३ वीं शती का उत्तरार्ध है। इस ग्रन्थ के प्रारंभ में चार श्लोक दिये गये हैं। प्रथम श्लोक में भगवान महावीरस्वामी को नमस्कार करके अनुष्ठान विधि कहने की प्रतिज्ञा की गई है उसके पश्चात तीन श्लोकों में प्रस्तुत कृति के बीस द्वारों का नामोल्लेख किया गया है।
इन २० द्वारों में वर्णित विषयवस्तु का सामान्य विवेचन इस प्रकार है - पहले द्वार में सम्यक्त्वव्रत ग्रहण करने की विधि वर्णित है। दूसरे द्वार में परिग्रहपरिमाण (देशविरति-श्रावकधर्मव्रतारोपण) विधि एवं छ:मासिक सामायिक ग्रहण करने की विधि का निर्देश किया गया है। तीसरे द्वार में १. दर्शन २. व्रत ३. सामायिक ४. और पौषध इन चार प्रतिमाओं को स्वीकार करने की विधि बतलाई गई है। चौथे द्वार में उपधान विधि एवं उपधानप्रकरण का उल्लेख किया गया है। पाँचवे द्वार में मालारोपण विधि वर्णित है। छठे द्वार में इन्द्रियजयादि विविध प्रकार की तप विधियों का निरूपण किया गया है। सातवें द्वार में अन्तिम आराधना विधि दर्शित की गई है। आठवें द्वार में श्रावकद्वारा की जाने योग्य अन्तिम आराधना विधि दिखलायी गई है। नौंवे द्वार में प्रव्रज्या विधि का उल्लेख है। दशवे द्वार में उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का निर्देश है।
___ ग्यारहवें द्वार में लूंचन विधि कही गई है। बारहवें द्वार में प्रतिक्रमण विधि का वर्णन है। तेरहवें द्वार में आचार्यपद पर स्थापित करने की विधि का
' अणुट्ठाणविहि (अनुष्ठान विधि) अथवा सुहबोह सामायारी (सुखबोधासामाचारी) ऐसा नाम भी सम्प्रात है- देखें जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा.४, पृ. २६८ २ यह कृति 'सुबोधसामाचारी' के नाम से देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था ने सन् १६२४ में छपवाई है। २ छह महिने तक उभयसंध्याओं में सामायिक करने की प्रतिज्ञा करना * किसी आचार्य ने ५३ गाथाओं का जैन महाराष्ट्री प्राकृत में यह प्रकरण लिखा है। इसका प्रारम्भ 'पंच नमोक्कारे किल' से होता है। ५ सैंतीस प्रकार के तप का स्वरुप संस्कृत में दिया गया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org