Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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252 / संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट विषयवस्तु की क्रमिकता का वैशिष्ट्य
आचार्य जिनप्रभसूरि ने जिस क्रम के साथ विधियों का निरूपण किया है वह निःसन्देह अवलोकनीय है। उन्होंने सर्वप्रथम 'सम्यक्त्व - व्रतारोपण विधि' को प्रस्तुत किया है चूंकि सम्यक्त्वशुद्धि और सम्यक्त्व धारण के बिना श्रावक-श्रावक की कोटि में नहीं गिना जा सकता है और न वह इस जीवन में धार्मिक या आध्यात्मिक विकास में आगे बढ़ सकता है। सम्यक्त्व ग्रहण करना साधना का प्रथम सोपान है। सम्यक्त्व विशुद्धि के बिना भवभ्रमण का अन्त नहीं है। सम्यकत्व आध्यात्मिकता का मूल बीज है।
उसके पश्चात् 'परिग्रहपरिमाणविधि' का उल्लेख किया है क्योंकि सम्यक्त्व ग्रहण के पश्चात् देशविरति की भूमिका में प्रविष्ट होने एवं पाप कार्यों से विमुख बनने हेतु श्रावक बारहव्रतों को अंगीकृत करता है । तत्पश्चात् 'छः मासिक सामायिकग्रहण विधि' की चर्चा की है जिसका तात्पर्य है श्रावक बारहव्रतों की परिपालना करते हुए कभी-कभार कुछ विशेष समय के लिए सर्व विरति पालन के अभ्यास रूप में सर्वसावद्य योगों का त्याग कर समभाव की साधना पूर्वक व्रतों को विशिष्ट रूप से पुष्ट करें। उसके बाद सामान्य ज्ञान के लिए सामायिक ग्रहण और सामायिक पारण की विधि कही गई है जो बारह व्रतधारी और सामायिक नियमधारी साधकों के लिए अनिवार्य है।
तदनन्तर छठे से वें द्वार तक 'उपधान विधि' को विस्तार से ज्ञापित किया है। गुरू की सन्निधि पूर्वक एवं विशिष्ट तप पूर्वक नमस्कारसूत्र, ईरियावहिसूत्र, चैत्यस्तवसूत्र आदि को वाचना के साथ ग्रहण करना उपधान है। यहाँ बारहव्रतधारी श्रावक के लिए नमस्कार मन्त्र का स्मरण एवं आवश्यक सूत्रों का ज्ञान अनिवार्य होने से सामायिक व्रतारोपण के पश्चात् उपधान विधि का उल्लेख किया है । ६ वें द्वार में 'पौषधविधि' का निरूपण है, क्योंकि उपधान तप पौषधपूर्वक ही सम्पन्न होता है। १० वें द्वार में 'प्रतिक्रमण सामाचारी' का वर्णन है, जो क्रम की अपेक्षा से सर्वथा उपयुक्त है। पौषध और उपधान अनुष्ठान में रात्रिक, दैवसिक और पाक्षिक तीनों प्रकार के प्रतिक्रमण आवश्यक कृत्य के रूप में किये जाते हैं इसलिए पौषध के बाद प्रतिक्रमण विधि कही गई है। ११ वें द्वार में विविध प्रकार की 'तपविधि' का वर्णन है। जब साधक उपधान करने के योग्य बन जाता है और दीर्घ तपस्या के द्वारा अपनी शक्ति को परख लेता है तब उसे क्रमशः छोटे-बड़े तप करने की भावना उद्भूत होती है । अतः तपविधि को उपधानतप के बाद निरूपित किया है।
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