Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/239
शिष्य अजितदेव मुनि है। इसका रचनाकाल वि.सं. १२७३ है। योगविधि- इसकी कोई जानकारी नहीं मिली है। योगविधि- इसके रचयिता शिवनन्दिगणि है। योगविधि- यह अज्ञातकर्तृक रचना है। योगविवरण- इसके कर्ता श्री यादवसूरि हैं। रात्रिपौषधविधि- यह अप्रकाशित है। इसमें रात्रिकालीन पौषधविधि का विवेचन है। विहिमग्गप्पवा-विधिमार्गप्रपा
जैन साहित्य की महान परम्परा को अविच्छिन्न बनाने में अनेक साहित्यकारों और उनके ग्रन्थों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। जैन साहित्य की इस परम्परा में विधिमार्गप्रपा का अद्वितीय स्थान है। इस कृति के प्रणेता खरतरगच्छीय जिनप्रभसूरि है।' उनकी यह रचना जैन महाराष्ट्री प्राकृत में है। इस कृति का रचनाकाल वि.सं. १३६३ है। यह रचना कोसल (अयोध्या) में हुई थी। इस ग्रन्थ का श्लोक परिमाण ३५७५ है। यह ग्रन्थ प्रायः गद्य में है। 'विधिमार्ग' यह खरतरगच्छ का ही पूर्व नाम है।
प्रस्तुत ग्रन्थ विधि-विधानों का अमूल्य निधि रूप है। इसमें नित्य (प्रतिदिन करने योग्य) और नैमित्तिक (विशेष अवसर या कभी-कभी करने योग्य) सभी प्रकार के विधि-विधान समाविष्ट हैं। इसमें जैन धर्म के विधि-विधानों का प्रमाणिक उल्लेख किया है। जैन विधि-विधानों से सम्बन्धित ऐसे प्रामाणिक ग्रन्थ विरले ही देखने को मिलते हैं। 'विधिमार्गप्रपा' नाम की सार्थकता- इस ग्रन्थ का वैशिष्टय यह है कि आचार्य जिनप्रभसूरि ने ग्रन्थ के अन्तर्गत ग्रन्थ के नामानुरूप, विषयों का चयन किया है। 'विधिमार्गप्रपा' ऐसा ग्रन्थ का नामभिधान अन्वर्थक और संगत है। यद्यपि इसकी प्राचीन सभी प्रतियों में तथा अन्यान्य उल्लेखों में संक्षेप में इसका नाम 'विधिप्रपा' ही प्रायः उल्लिखित है। सामान्य अर्थ में तो 'विधिमार्ग' का 'क्रियामार्ग' ऐसा भी अर्थ विवक्षित होता है पर विशेष अर्थ में 'खरतरगच्छीय विधि (क्रिया) मार्ग' ऐसा
' (क) इस कृति का प्रथम संस्करण सन् ११४१, जिनदत्तसूरि भण्डार ग्रन्थमाला से प्रकाशित हुआ है। (ख) दूसरा संस्करण 'प्राकृत भारती अकादमी जयपुर से निकला है। (ग) तीसरा संस्करण हिन्दी अनुवाद के साथ महावीर स्वामी जैन देरासर, पायधुनी, मुबंई से, सन् २००६ में प्रकाशित हुआ है। २ इस ग्रन्थ का मुख्य संपादन मुनि जिनविजयजी ने किया है। तीसरा संस्करण भी काफी कुछ नये संशोधनों के साथ तैयार किया गया है। ३ प्रतिष्ठा विधि नामक छः द्वार एवं मुद्राविधि नामक ३७ वॉ द्वार का निरूपण (६७ से ११७) प्रायः संस्कृत में है।
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