Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
View full book text
________________
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/241
आया है। यही कारण है कि परवर्ती परम्पराओं ने विधि-विधान की दृष्टि से इस ग्रन्थ का किसी न किसी रूप में अनुकरण किया है। ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय - जैसा कि इसके नाम से ही परिज्ञात होता है कि यह ग्रन्थ साधु और श्रावक के नित्य और नैमित्तिक दोनों ही प्रकार की क्रियाओं के लिए एक सुन्दर 'प्रपा' के समान है। इसमें कुल मिलाकर ४१ द्वार यानि प्रकरण हैं। इन द्वारों के नाम, ग्रन्थ के अन्त में स्वयं ग्रन्थकार ने १ से ६ तक की गाथाओं में सूचित किये हैं। इन मुख्य द्वारों में कहीं-कहीं कितनेक अवान्तर द्वार भी सम्मिलित हैं- जो यथास्थान उल्लिखित किये गये हैं। इन अवान्तर द्वारों का नाम-निर्देश ग्रन्थ की विषयानुक्रमणिका में कर दिया गया है। उदाहरणार्थ- पाँचवें द्वार के अन्तर्गत पंचमंगल-उपधान, उन्नीसवें के अन्तर्गत दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग आदि चार अंग, निशीथादि छेदसूत्र, छठे से ग्यारह अंग, औपपातिक आदि उपांग, प्रकीर्णक, महानिशीथ एवं योगविधान प्रकरण, तीसवें आलोचना विधि नामक प्रकरण के अन्तर्गत ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार और देशविरति आदि देशविरति के प्रायश्चित्त एवं आलोचनाग्रहणविधि प्रकरण, इसी तरह इगतीसवें पइट्ठाविही नामक प्रकरण में प्रतिष्ठाविधिसंग्रह गाथा, अधिवासनाधिकार, नन्द्यावर्त्तलेखन, जलानयन, कलशारोपण
और ध्वजारोपण विधि, प्रतिष्ठोपकरणसंग्रह, कूर्म प्रतिष्ठाविधि, प्रतिष्ठासंग्रहकाव्य, प्रतिष्ठाविधि गाथा और कहारयणकोस (कथारत्नकोश) में से ध्वजारोपणविधि आदि आनुषांगिक विधियों के स्वतंत्र प्रकरण सन्निविष्ट हैं।
इन ४१ द्वारों में से प्रथम के १२ द्वारों का विषय मुख्य करके श्रावक जीवन के साथ सम्बन्ध रखने वाली क्रियाओं से सम्बन्धित है। १३ वें द्वार से लेकर २६ वें द्वार तक में वर्णित विधियाँ प्रायः करके साधु जीवन के साथ सम्बन्ध रखती हैं और आगे के ३० वें द्वार से लेकर अन्त के ४१ ३ द्वार तक में वर्णित क्रिया-विधान साधु और श्रावक दोनों के जीवन के साथ सम्बन्ध रखने वाले हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण एवं प्रयोजन को लेकर एक गाथा दी गई है जिसमें भगवान महावीर को नमस्कार किया है और गुरोपदेश का सम्यक् स्मरण करके श्रावकों एवं साधु के कृत्यों की सामाचारी लिखने की प्रतिज्ञा की गई है। अन्त में सोलह पद्यों की प्रशस्ति हैं। इस प्रशस्ति के आदि के छः पद्यों में प्रस्तुत कृति जिन ४१ द्वारों में विभक्त हैं उनके नाम दिये गये हैं और तेरहवें पद्य के द्वारा कर्ता ने सरस्वती एवं पद्मावती से श्रुत की ऋद्धि समर्पित करने की प्रार्थना की है साथ ही इस कृति का प्रथमादर्श कर्ता के शिष्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org