Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/235
चन्द्रगच्छीय श्री प्रद्युम्नसूरि ने वि.सं. १३२८ में, ४५०० श्लोक परिमाण विस्तृत टीका रची है।'
प्रस्तुत कृति के नाम से ही यह स्पष्ट अवगत होता है कि यह ग्रन्थ प्रव्रज्या (दीक्षा) विधान का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करने वाला है। यद्यपि इसमें दीक्षा या तत्सम्बन्धी विधान उतने चर्चित नहीं हुए हैं, किन्तु प्रव्रज्या ग्रहण करने वाले जीव को संसार की असारता का भलीभाँति बोध हो जाये, संयम-त्याग-तप के प्रति हृदय से अहोभाव जग जाये तथा संयमी जीवन स्वीकार करने के बाद व्रतों एवं आवश्यक नियमों का परिपालन सम्यक् प्रकार से कर पायें इस विषय पर अधिक बल दिया गया है। प्रत्येक प्रसंग को सोदाहरण स्पष्ट करने का भी प्रयास किया गया है। यह इस कृति की अनोखी विशिष्टता है। यहाँ ध्यातव्य हैं कि इस ग्रन्थ का विषय निरूपण करते हुए विधि या विधान शब्द का प्रयोग भले ही अल्प हुआ हो, किन्तु जो कुछ उल्लिखित हैं उसका मूल सम्बन्ध विधि-विधान से ही रहा हुआ है।
इस ग्रन्थ की विषयवस्तु दस द्वारों में विभक्त है। प्रारंभ में मंगलाचरण को लेकर कोई गाथा नहीं है अन्त में छः श्लोक प्रशस्ति रूप में दिये गये हैं। इस ग्रन्थ की विषय विवेचना संक्षेप में इस प्रकार है
प्रथम द्वार का नाम 'मनुष्यदुर्लभता' है। इसमें संसार की विषमता को समझाते हुए निम्न दस दृष्टान्त कहे गये हैं १. ब्रह्मदत्त २. पाशक ३. धान्य ४. द्यूत ५. रत्न ६. स्वप्न ७. चक्र ८. चर्म ६. युग और १० परमाणु। द्वितीय द्वार का नाम 'बोधिदुष्प्रापता' है। इसमें समझाया गया है कि जिनधर्म का बोध होना अत्यन्त मुश्किल है। इस सम्बन्ध में श्री ऋषभदेव का चरित्र कहा गया है। बोधि धर्म की अप्राप्ति के विषय में राजा को मारने वाले उदायी का और अर्हद्दत्त का चरित्र कहा गया है। तृतीय द्वार का नाम 'प्रव्रज्यादुरापत्त्वम्' है। इसमें वर्णन है कि प्रव्रज्या सुकृत पुण्य का फल है। प्रव्रज्या दुष्प्रापत्व के विषय में जमाली आदि आठ निह्मवों के दृष्टान्त दिये गये हैं।
चतुर्थ द्वार का नाम 'प्रव्रज्यास्वरूपप्रकाशन' है। इस द्वार में प्रव्रज्या का स्वरूप कहते हुए पंचमहाव्रत, छट्ठा रात्रिभोजनविरमणव्रत, गोचरी के बियालीस दोष, ग्रासैषणा के पांच दोष, पाँचसमिति, तीनगुप्ति, तपविधान का उपदेश, अममत्व, अकिंचनत्व, बारह प्रतिमा, यावज्जीवन अस्नान, अनवरत भूमिशय्या, केशोद्धरण,
' यह ग्रन्थ श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था से सन् १९३८ में प्रकाशित हुआ है। यह कृति प्रद्युम्नसूरि की वृत्ति सहित मुद्रित है।
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