Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/225
योग्यता और अयोग्यता का विचार, तप का स्वरूप, तप के ब्राह्माभ्यंतर भेद, भावना का महत्व, भावना से होने वाले लाभ, विहार करने की विधि, यतिकथा करने से होने वाले लाभ इत्यादि का निरूपण भी किया गया है। चतुर्थ अनुयोग-गणानुज्ञाविधि अधिकार
चतुर्थ अधिकार में ४३४ गाथाएँ हैं जिनमें मुख्यतः आचार्यपदस्थापना, वाचनाचार्यपदस्थापना, गण-अनुज्ञा विषयक विधि-विधानों की चर्चा की गई हैं। इसके साथ ही 'स्तवपरिज्ञा" जो कि एक पाहुड माना जाता है, वह उद्धत किया गया है। यह इस ग्रन्थ की महत्ता में सहस्रगुणी वृद्धि करता है। इसके द्वारा द्रव्यस्तव और भावस्तव पर प्रकाश डाला गया है। इसके अतिरिक्त निम्न बिन्दुओं का भी सटीक प्रतिपादन किया गया है जैसे- अनुयोग की अनुज्ञा के योग्य कौन? अयोग्य की अनुज्ञा करने से होने वाली हानियाँ, मृषावाद आदि चार द्वारों का वर्णन, कैसा शिष्य अर्थवाचना के योग्य है? योग्यशिष्य को वाचना देने से होने वाले लाभ, व्याख्यान विधि, वाचना विधि, वाचना श्रवण विधि, विधिपूर्वक श्रवण करने का फल, स्वभावादि पांच कारण, आत्मा की नित्यानित्यता, मोक्ष की सिद्धि आदि।
स्तवपरिज्ञा के आधार पर अग्रलिखित बिन्दुओं पर चर्चा की गई हैं - स्तवपरिज्ञा का अर्थ, द्रव्यस्तव भावस्तव की व्याख्या, भूमिशुद्धि संबंधी पाँच द्वार, मंदिर निर्माण में गर्मपानी का उपयोग, जिनबिंब निर्माण की विधि, जिनबिंब की प्रतिष्ठा विधि, प्रतिष्ठा के बाद संघपूजा का विधान, जिनबिंब की पूजा विधि, साधुदर्शन की भावना करने से होने वाले लाभ, अठारहहजार शीलांग, निश्चय एवं व्यवहार से चारित्र आराधना का स्वरूप, जिनपूजादि में होने वाली हिंसा-अहिंसा की समीक्षा, जिनपूजा संबंधी प्रश्नोत्तरी, गणानुज्ञा के योग्य कौन?, प्रवर्तिनी पद के योग्य कौन?, अयोग्य को पद प्रदान करने से होने वाले दोष, नूतन आचार्य को हित शिक्षा का दान, गुरुकुलवास से होने वाले लाभ, इत्यादि। इस प्रकार इस
अधिकार में महत्त्वपूर्ण विषयों पर प्रकाश डाला गया है पंचम संलेखनाविधि अधिकार
___ इस अधिकार में सल्लेखना सम्बन्धी विधि-विधान दिये गये है। इसमें ३५० गाथाएँ है, जिनमें मुख्य रूप से अधोलिखित विषयों का स्पर्श किया गया हैवे इस प्रकार हैं- संलेखना का स्वरूप, संलेखना संबंधी दस द्वार, आहार की
' इसके विषय में विशेष जानकारी 'जैन सत्यप्रकाश' (वर्ष २१, अंक १२) में प्रकाशित 'थयपरिण्णा अने तेनी यशोव्याख्या' नामक लेख में दी गई है। देखें, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास- भा. ४, पृ. २७०
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